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तिर्यंच का चारों गति में गमन
मनुष्य की ही तरह तिर्यंच गति का जीव भी चारों गति में जा सकता है । जन्म-मरण धारण कर सकता है । तियंच गति का जीव पशु-पक्षी मरकर देवगति में स्वर्ग में देव भी बन सकता 1. जैसा कि पहले बताया है उसी तरह पशु-पक्षी मरकर नरक गति में नारकी के रूप में भी जन्म लेते हैं । सिंह मरकर जैसे चौथी नरक में गया । तिर्यंच गति के जीव मरकर मनुष्य गति में भी श्राते हैं मनुष्य बनते हैं । वैसे ही तिर्यंच गति के जीव मरकर पुनः तिर्यंच गति में भी जन्म लेते हैं । जैसे घोड़ा मरकर गधा बने, गधा मरकर हाथी बने, हाथी ऊंट बने, ऊँट-बकरी बने, बकरी-सूर बने, या सूअर - मछली बने, या मछली - कछुआ बने या कछुआ - कौवा बने, कौवा - गीदड़ बने, इस तरह तिर्यंच गति के जीव अन्दर ही अन्दर जन्म-मरण धारण करते रहते हैं । तिर्यंच गति में जीवों की संख्या अनन्त है । जीवों के प्रकार भी अनेक है । जीवों की उत्पत्ति योनियां भी अनेक हैं । उत्पत्ति क्षेत्र भी काफी लम्बा चौड़ा असंख्य द्वीप समुद्रों का है । एक समुद्र में ही कितनी मछलियां है ? या कितने प्रकार की मछलियां हैं ? यही कोई नहीं गिन पा रहा है तो समस्त तिर्यंच गति के जीवों की संख्या और प्रकार गिनने की तो बात ही कहां सम्भव है ? सिर्फ स्थलचर में भी देखें तो हाथी-घोड़ा, ऊंट-बैल, गधा बकरी, बन्दर- सूअर, शेर- चिता सिंह श्रादि न मालुम कितने प्रकार के जीव हैं ? कितनी बड़ी संख्या है ? तिर्यंच गति में ही जीव अनन्त जन्म हो जाय इतनी लम्बी-चौड़ी संख्या है ।
चारों गति में जीवों का परिभ्रमण
इस तरह हमने चारों गति में जीवों का सतत परिभ्रमण देखा । यह गमनागमन अविरत सतत चालू रहता है । जन्म-मरण, जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद पुन: जन्म; फिर से जन्म और फिर से मरण यह चक्र सतत चल रहा है । इस जन्म-मरण के चक्र के लिए धरातल इस चार गति का है । जैसे तैली का बैल जो चलता रहता है घाणी है । उससे बंधा हुआ वह दिन रात चलता रहता है । श्रांख पर पट्टी बंधी हुई है । बाहर देख तो सकता नहीं कि मैं कितना दूर निकल गया ? परन्तु सोचता है कि दिन-रात चलते-चलते मैं ५०-१०० माइल चला ? या कितना चला ? एक गांव से दूसरे गांव पहुँचा कि नहीं ? परन्तु जब उसे छोड़ा जाता है तब पता चलता है कि अरे रे ! मैं जहां था वहीं हूं। एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा । इतना चलने के बाद भी एक कदम ग्रागे नहीं बढ़ सका । ठीक वही स्थिति हमारी भी है । चार गति के इस संसार चक्र में हम सतत घूमते रहते हैं । एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते हैं,
कर्म की गति न्यारी