SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मानें? इसमें क्रमापत्ति आयेगी । आप ईश्वर को सर्वव्यापी, सर्वगत मान लेंगे तो भी एक ईश्वर और अगणित असंख्य कार्य कैसे होंगे ? अच्छा सशरीरी मानकर तो सर्वव्यापी, सर्वगत मानने में परस्पर विरोध आयेगा । ऐसे अशरीरी मानने में सर्वव्यापी सर्वगत हो जायेगा तो सभी कार्य अशरीरी कैसे करेगा ? आकाश भी अशरीरी सर्वव्यापी सर्वगत है तो फिर आकाश को ही ईश्वर मानने की आपत्ति खड़ी होगी । वह भी नित्य है । लेकिन आकाश निर्जीव, निष्क्रिय है। ईश्वर तो सक्रिय है । अच्छा आप सारी सृष्टिं सह-भू एक साथ ही, उत्पन्न हुई है ऐसा मानोगे तो या तो ईश्वर को जादूगर मानना पड़ेगा जैसा कि कहते हैं कि हमारे ईश्वर ने एक जादू किया और सारा संसार बन गया । कोई कहता है कि कुन्द शब्द कहा और सृष्टि बन गई। तो इन्द्रादि भी इन्द्रजाल करते हैं । जादुगर भी, अपने जादू आदि से कई वस्तुएं बनाते हैं । तो क्या ईश्वर को जादुगर मानें ? या इन्द्रजाल का कर्ता इन्द्र मानें ? या क्या करें ? जादुगर की माया सही भी नहीं होती । वह भूत-पिशाच आदि की सहायता भी लेता है । तो क्या ईश्वर भी जादुगर के रूप में पिशाचादि की सहायता लेकर सृष्टि बनाता है ? अच्छा तो पिशाचादि क्या सृष्टि के अंग नहीं हैं ? क्या वे ईश्वर के अनुचर हैं या अंश हैं ? यदि यह मानने जाएंगे तो क्या होगा ? क्या सृष्टि मात्र ईश्वर के संकल्प मात्र से निर्माण हो जाती है ? जैसा कि कहा गया है कि - " एकोहं बहुस्याम प्रजायेय” एक जो मैं हुँ वह बहुरूपी हो जाऊँ और प्रजोत्पत्ति करूं । यह संकल्प है या इच्छा है.? इच्छा है। इच्छा भी ईश्वर में नित्य रहने वाली है या अनित्य ? यदि नित्य है तो नित्य ही ईश्वर को यह इच्छा होती ही रहेगी। और नित्य ही सृष्टि चलती रहेगी। यदि अनित्य है तो सम्भव है कि सृष्टि का कार्य कैसे करेंगे ? सृष्टि अधूरी रह जाएगी। फिर इच्छा के बिना तो ईश्वर सृष्टि निर्माण कर नहीं सकेंगे। एक सर्वशक्तिमान नित्य ईश्वर जो समर्थ है, उसका सृष्टि निर्माण का कार्य अपूर्ण-अधूरा रहेगा, यह दोष किस पर डालेंगे ? दूसरी तरफ अधूरी सृष्टि का प्रलय करना भी अनुचित गिना जाएगा । यदि आप यह कहो कि ईश्वर लीला के हेतु से अवतार लेते हैं। वह सिर्फ लीला करने आते हैं । लीला करना ही उनका मुख्य उद्देश्य है, यह भी आप जो कहते हैं-लीला के उद्देश से अवतार लेते हैं । परन्तु लीला किस विषय में । सृष्टि निर्माणार्थ या प्रलय के लिए ? न्याय सिद्धान्त मुक्तावली ग्रन्थ की रचना के प्रारम्भ में मंगलाचरण के श्लोक में लिखते हैं कि - चूडामणि -कृत-विधुर्वलयीकृत वासुकिः । भवो भवतु भव्याय लीला - ताण्डव - पण्डितः ।। कर्म की गति नयारी ७०
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy