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कर्म जन्य है। शुभाशुभ कर्म ही रागादि के कारण हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट कहा है कि - "रागो य दोषो वि य कम्म बीयं” राग-द्वेष ही कर्म के बीज हैं। इन्हीं बीजों से सारा कर्मवृक्ष खड़ा होता है। यदि ईश्वर भी रागादि कर्म कारणों के आधीन होकर इच्छा से प्रेरित होता है और संसारस्थ मनुष्य पशु-पक्षी आदि सभी जीवों की भी यही दशा है। वे भी रांगादि बीज जन्य विपाक स्वरूप इच्छादि तत्त्व से प्रेरित होकर ही प्रवृत्ति करते हैं तो फिर दोनों में अन्तर क्या रहा?
अच्छा चलो भाई मान भी लें कि इच्छा के आधीन ईश्वर सृष्टि की रचना करता है तो ईश्वर ने एक को सुखी एक को दुःखी, एक को ऊँचा, एक को नीचा, एक को विष्ठा खाने वाला सूअर और दूसरे को मेवा-मिठाई खाने वाला क्यों बनाया? यदि सब कुछ ईश्वर के आधीन है तो क्या ईश्वर अपनी सृष्टि अत्यधिक सुन्दर, निर्दोष, सर्व दोष क्षति रहित नहीं बना सकता है ? ऐसा क्यों ? वह ऐसी सृष्टि बनाए जिससे सृष्टि के मनुष्यादि भी ईश्वर के एक वाक्यता की प्रशंसा के शब्दों में याद करें । लेकिन वह भी नहीं । एक तरफ संतान के अभाव वाले को संतान देकर दूसरी तरफ संतान की जन्म दाता माता को उठा लेता है। अब और भी समस्या बढ़ गई । ऐसे कारणों से ईश्वर की दया-करुणा के विषय में शंका उत्पन्न होती है। क्यों नहीं ईश्वर अपनी दया करुणा का उपयोग करता है जबकि उसमें पड़ी है तो ?
हम वर्तमान विज्ञान युग में देखते हैं कि एक मशीन यदि लाखों वस्तुएं ग्लास आदि बनाती है तो वे लाखों ग्लास एक सरीखे बनाती है। एक से दसरे में कोई भेद नहीं । परन्तु यहां ईश्वर की रचना में तो वह भी नहीं है। एक मां के चार पुत्र हैं तो वे भी वर्णादि में भी समान नहीं हैं। उसी तरह स्वभावादि में भी समान नहीं है। एक का स्वभाव दूसरे से नहीं मिलता, यह कैसी विषमता है। समुद्र का इतना पानी होते हुए सारा ही खारा है।
अच्छा यह पूछा जाय कि ईश्वर सष्टि क्यों बनाता है? क्या ईश्वर का स्वभाव है ? उत्तर में यदि हां कहते हैं, कि सृष्टि निर्माण करना ईश्वर का स्वभाव विशेष है तो वह स्वभाव ईश्वर के साथ सदा ही रहेगा। यदि ईश्वर सांत नहीं और नित्य है तो वह सृष्टि निर्माण का स्वभाव भी नित्य रहेगा। तो फिर उस स्वभाव के आधीन नित्य ईश्वर सदाकाल सृष्टि निर्माण का कार्य ही करता रहेगा । फिर वह सृष्टि निर्माण को छोड़कर अन्य कुछ भी करे यह सम्भव ही नहीं है। तो फिर ईश्वर नित्य काल तक निरन्तर सतत सृष्टि निर्माण करता ही रहेगा। यह सातत्य रहेगा । चूंकि ईश्वर स्व सत्ता से नित्य है और सृष्टि रचना का स्वभाव भी नित्य है तो सृष्टि रचना का कार्य भी निरंतर सतत चलता ही रहेगा। और यदि यह स्वीकार करेंगे तो सृष्टि को अपूर्ण ही माननी पड़ेगी। कभी भी सृष्टि पूरी रची गई है यह कह ही नहीं सकेंगे। चूंकि जो कार्य कर्म की गति नयारी
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