________________
यदि आप यह कहो कि जगत्कर्ता की सत्ता सादि नहीं अनादि है तो उसी के साथ जगत् को भी अनादि मानना पड़ेगा। अनादि तत्त्व यदि सिद्ध होगा तो अनादि की तो उत्पत्ति नहीं होती है । अनादि द्रव्य तो अनुत्पन्न होता है। जैसा कि आप ही कहते हैं कि आकाश अनादि द्रव्य है। आकाश पदार्थ ईश्वर के द्वारा बनाया नहीं गया है। अनादि यदि आकाश है और उसी की तरह समस्त जगत् अनादि मान लेंगे तो ईश्वर की निष्क्रियता सिद्ध हो जायगी । ईश्वर की निष्क्रियता सिद्ध हो यह भी ईश्वरवादी को ईष्ट नहीं है । परन्तु ईश्वर की कर्तृत्वता और जगत् की अनादिता दोनों तो एक साथ रह नहीं सकती । चूँकि परस्पर विरोधी है। अब यदि जगत् की अनादिता सिद्ध होती है तो ईश्वर के द्वारा प्रलय किया जाता है, संहार किया जाता है यह पक्ष भी नहीं ठहरेगा । ईश्वर की तीनों अवस्था टिकाए रखने के लिए जगत् को भी सादिसान्त माना है और तभी ही ईश्वर का कर्तृत्व टिकेगा ।
दूसरी तरफ यह कहते हैं कि ईश्वर ने सृष्टि कैसी बनाई ? किस तरह बनाई ? इसके उत्तर में वेद में लिखा है कि “धाता यथा पूर्वमकल्पयेत्” । धाता = विधाता ने जिस तरह इसके पूर्व के कल्प में जैसी सृष्टि रचना की थी, वैसी ही सृष्टि इस कल्प में ईश्वर करता है, बनाता है। यह कैसे पता चला कि पूर्व कल्प में ऐसी सृष्टि बनाई थी ? इसके उत्तर में कहते हैं कि वेद में देखा । वेद को अपौरुषेय कहा है। वेद किसी से उत्पन्न नहीं हुआ है। किसी के द्वारा कहे नहीं गए हैं। वेद अनुत्पन्न अनादि अनंतअपौरूषेय है यह कल्पना की गई है। ईश्वर सादि-सान्त सोत्पन्न है । ईश्वर भी वेद का कर्ता नहीं है। वेद में जैसा लिखा था जिस प्रकार लिखा था उसी प्रकार के वेद पाठ देखकर ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है। यहां थोड़ी सोचने जैसी बात यह है कि ईश्वर को सर्वज्ञ-सर्वव्यापी, सर्व शक्तिमान, सर्वेश्वर मानकर भी वेद के आधीन बना दिया । सर्व तंत्र स्वतन्त्र मानकर भी परवश- पराधीन बना दिया। ईश्वर सर्वज्ञ हैं कि वेद सर्वज्ञ हैं ? इसके बारे में क्या कहेंगे ? वेद में लिखे अनुसार यदि ईश्वर सृष्टि रचना करता है तो फिर ईश्वर की सर्वज्ञता तो असिद्ध हो ही गई और अल्पज्ञता सिद्ध हो जाती है ।
अच्छा दूसरी बात यह है कि यदि ईश्वर वेद में लिखे पाठानुसार सृष्टि निर्माण करता है, सृष्टि सदा सर्वदा एकसी रहनी चाहिए। सभी युगों में सृष्टि एक जैसी ही बननी चाहिए। लेकिन नहीं सभी युगों में सृष्टि की साम्यता भी तो स्वीकार नहीं की है। व्दापर युग में सृष्टि ऐसी थी, त्रेता युग में कुछ अलग थी, सत् युग में जैसी सृष्टि थी वैसी आज कलियुग में नहीं है यह तो प्रत्यक्ष सिद्ध है। जबकि जैसी पूर्व कल्प में थी वैसी ही सृष्टि यदि वेद में देखकर ईश्वर बनाता है तो हमेशा एक सरीखी सृष्टि होनी चाहिए थी । लेकिन यहां भी विसंगतता है । अतः यह पक्ष भी युक्ति सिद्ध नहीं होता है ।
1
सृष्टि में विषमता और विचित्रता क्यों ?
कर्म की गति नयारी:
६४