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________________ रूप में ईश्वर को नहीं स्वीकारते । अतः वे निरीश्वरवादी-या अनीश्वरवादी कहलाए । परंतु अनीश्वरवादी ने भी परमात्म स्वरूप को आत्मगुणैश्वर्यसम्पन्न पूर्ण शुद्ध-सर्वज्ञ वीतराग स्वरूप में मानकर उपासना अवश्य की है। उदाहरणार्थ जैन धर्म, मीमांसक, तथा सांख्य और योग दर्शन के प्रमुख रूप से निरीश्वरवादी जरूर हैं अर्थात् सृष्टिकर्ता के रूप में, संसार के निर्माता या नियन्ता या संहारक के रूप में या इच्छा के केन्द्र के रूप में ईश्वर को नहीं स्वीकारते हैं। परन्तु बौद्ध धर्म में तथागत बुद्ध को बोधिज्ञान संपन्न महापुरुष भगवान माना गया है। जैन धर्म में आत्मा ही जो परमात्मा बनती है वही सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, वीतरागी, अरिहंत, तीर्थकर, सर्व कर्म रहित, सर्वदोष मुक्त, सर्व विशुद्धावस्था में बिराजमान सिद्ध-बुद्ध-मुक्त को परमेश्वर माना गया है। हाँ, वह वीतराग होने से इच्छा तत्त्व से रहित है। चूंकि इच्छा भी राग का ही पर्यायवाची शब्द है। अतः राग द्वेष ये कर्म जन्य मानवी स्वभाव है जिसमें इच्छा अनिच्छा का प्रश्न आता है । परन्तु परमेश्वर परमात्मा इस इच्छा तत्त्व से (रागादि भावों से) मुक्त है अतः वह जगत को स्वइच्छावश फल देने वाले नहीं है। ईश्वरवादियों ने इच्छा का बल ईश्वर के हाथ में दे दिया है। इसलिए उसे ही जगत के सभी जीवों के कार्य-क्रिया का केन्द्र माना गया है। अतः ईश्वर की इच्छा के बिना वृक्ष का पत्ता भी नहीं हिल सकता.। जैन धर्म ने निरीश्वरवादी धर्म होते हए भी कर्म एवं कर्मफल, सृष्टि-संसार रचना, एवं जगत व्यवस्था आदि सभी ईश्वरवादी प्रश्नों को सुलझाया है। सभी का उत्तर हैं । सृष्टि आदि का सुव्यवस्थित उत्तर देते हैं। इतना ही नहीं जड कर्मों के हाथ में कर्म फल की सत्ता का कार्य है। अतः ईश्वर का स्वरूप विकृत न करते हुए परम विशुद्ध बताया है। उसकी उपासना सर्व कर्म क्षय के उद्देश्य से करने की है, मोक्ष फल प्राप्त करने की विशुद्ध साधना.पद्धति बनाई है। कर्म फल दाता के रूप में ईश्वर को जीवों के कृत-कर्म के विपाक स्वरूप दुःख सजादि का कारण क्यों मानें? क्यों ईश्वर को मानवी के सुख-दुःख का कारण माने? कर्म फल के रूप में ईश्वर को बीच में लाकर ईश्वर के हाथ गन्दे करना या विशुद्ध ईश्वर के स्वरूप को विकृत करना जैन धर्म ने उचित नहीं समझा। ईश्वर का स्वरुप शुद्ध-विशुद्ध-परमशुद्ध रखा है। अतः ईश्वर को सर्व दोष रहित, सर्व कर्म मुक्त, क्लेश-कषाय-कल्मष-कर्म रहित माना, रागद्वेष रहित वीतराग माना, अज्ञान, अल्पज्ञान रहित सर्वज्ञ सर्वदर्शी माना, राग-द्वेष विजेता के रूप में जिन जिनेन्द्र, जिनेश्वर माना है। मोक्षमार्ग उपदेशक के रूप में तीर्थंकर अरिहंत माना है। इतना ही नहीं निरीश्वरवादी जैन दर्शन भी ईश्वर शब्द का प्रयोग करते हैं, किसी विशेषण के साथ ईश्वर शब्द का प्रयोग करते हैं-उदाहरणार्थ परम + ईश्वर = परमेश्वर, जिन + ईश्वर = जिनेश्वर इत्यादि शब्द प्रयोग में प्रतिदिन लाते हैं। परन्तु इसमें सृष्टि कर्ता के अर्थ की ध्वनि नहीं है। परम का अर्थ है जो पामर कर्म की गति नयारी (६०
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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