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________________ ५०-६० साल से ईश्वरोपासना कर रहे हैं। मोक्ष दाता, सर्व गुणसम्पन्न, सर्वज्ञ वीतराग समझकर जिसको भगवान कह रहे हैं, ऐसा न हो कि ५०-६० साल के बाद अन्त में वह रागी-द्वेषी देव निकल जाय। कोई स्वर्गीय देव-देवी ही हो। जो सर्वज्ञ वीतरागी न हो और हमारे ही जैसा दोषयुक्त, राग-द्वेष वाला रागी -द्वेषी हो । यह यदि वर्षों बाद पता चले तो कैसा होगा ? जैसी उस पारसमणी वाले वृद्ध की दशा हुई वैसी ही हमारी दशा होगी। सिर पर हाथ रखकर रोने के दिन आएंगे । अतः अच्छा तो यही होता कि हम उपास्य तत्त्व की उपासना करने के पहले ही उसका सही स्वरूप समझकर फिर उसकी उपासना करें, इसीलिए ईश्वर परीक्षा करने के लिए महापुरुषों ने अनुमति दी है। हम ईश्वर की क्या परीक्षा करें ? सामान्य मानवी यह सोचता है कि हम क्या ईश्वर की परीक्षा करें ? हमारी क्या बुद्धि है ? जो हम ईश्वर की परीक्ष कर सकें? करें तो भी कैसे करें ? इस विषय में हमें अनुचित सा लगता है। अनधिकार चेष्टा लगती है । सर्वज्ञ की परीक्षा हम अल्पज्ञ क्या करें? आपकी बात भी सही लगती है। सामान्य मानवी ईश्वर की परीक्षा करने की हिम्मत भी नहीं करता । यह हमारी शक्ति के बाहर की बात है । परन्तु थोड़ा सोचिए । हमारे पूर्वज महापुरुषों ने हमको ऐसी अनुमति क्यों दी होगी. ? क्या वे नहीं समझते थे कि हम अल्पज्ञ हैं ? बात सही है, परन्तु हम बाजार में सोना खरीदने जाएं और लाख रुपए देकर खरीद भी लें । परन्तु वर्षों बाद यदि वह सोना पीतल है, ऐसा पता चले तब क्या होगा ? तब सिर पर हाथ देकर रोने के दिन आएंगे । हाय ! मेरे लाख रुपए गए। सोना भी गंवाया और लाख रुपए भी गंवाए । तब कैसी परिस्थिति निर्माण होगी उसके बारे में सोच लेना । उसी तरह ईश्वर की उपासना जीवन भर करने के बाद वह ईश्वर रागी-द्वेषी है, सर्वज्ञ नहीं है ऐसा पता चला तो फिर क्या होगा ? अतः उपासना के पहले ही उपास्य को पहचानना जरूरी है । ईश्वर विषयक भिन्न-भिन्न मान्यताएँ : : . वर्तमान संसार में विद्यमान भिन्न-भिन्न धर्मों में ईश्वर विषयक मान्यता है । ईश्वर ही केन्द्र स्थान में है । चाहे ईश्वरवादी मान्यता वाले हों या निरीश्वरवादी मान्यता वाले धर्म हों, उन्होंने भी शुद्धात्मा, मुक्तात्मा, परमात्मा की बाते की हैं । ईश्वर विषयक मान्यताएं भिन्न-भिन्न प्रकार की हैं। मानने का स्वरूप भिन्न है । वैदिक धर्म में ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में माना गया है। बौद्ध धर्म में गौतम बुद्ध जो कि इसके आद्य प्रवर्तक थे, उनको बुद्ध पुरुष के रूप में माना गया । परंतु बौद्ध धर्म ने सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर को नहीं माना है। जैन दर्शन ने सृष्टिकर्ता ईश्वर को ईश्वर नहीं माना है, कर्म की गति नयारी ५६
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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