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भगवान पार्श्वनाथ बनकर मोक्ष में गए। जबकि बड़ा भाई कमठ आज भी संसार की घटमाल में भटक रहा है। न मालुम आगे कितने भवों तक भटकता ही रहेगा। सगे भाईयों के बीच ऐसा भयंकर संसार चलता है तो फिर अन्यों में तो कहा ही क्या जाय ? जाति वैमनस्य का रूप तो और ही भयंकर है। एक जज तो एक भिखारी :
बात सगे दो भाई की है। छोटा भाई तो हाईकोर्ट का जज है और बड़ा भाई रास्ते पर भिख मांगता हुआ भिखारी है। योगानुयोग रास्ते में भिखारी हमारे पास आया कुछ मांगने की दृष्टि से । और उसी समय जज साहब भी वहां से पसार हो रहे थे कि वे भी रुके। भाई को कहा चल गाड़ी में बैठ जा । मेरे साथ बंगले में ही रह जा । क्यों इस तरह भिख मांगता है ? दुनिया देखती है। मुझे शरमिंदा होना पड़ता है । बहुत कुछ कहा लेकिन भाग्य कहां घसीट ले जाते हैं ? कैसा विचित्र संसार। दो भाइयों में भी समानता नहीं है । बड़ी भारी विषमता है। विचित्रता है । एक मां के चार बेटे भी समान स्वभाव के नहीं है । कोई पूर्व दिशा की बात करता है तो कोई पश्चिम की । कोई क्रोध की आग से घर को जलाता है तो कोई लोभवृत्ति से घर को लूटता है। कोई मान अभिमान से घर की इज्जत बिगाडता है,तो कोई मायावी वृत्ति से कपट की जाल रचता है। संसार सर्वत्र विचित्र दिखाई देता है। इतना ही नहीं युगल रूप में जन्मे हुए दो भाईयों के बीच में भी साम्यता नहीं होती है । क्या कारण है ? भव रोग का भय :
भव अर्थात् संसार, भव अर्थात् जन्म-मरण, भव अर्थात् संसार की भव परंपरा । देह रोग का भान तो सबको होता है। परंतु भव रोग का ज्ञान किसी विरल को ही होता होगा आधि-व्याधि-उपाधि में कई प्रकार के रोग बताए गए हैं। शारीरिक रोग एवं मानसिक रोग तो प्रसिद्ध ही है। सभी इनसे अच्छी तरह सुपरिचित है। शरीर में होने वाले रोग शारीरिक रोग है। पागलपन आदि मानसिक रोग है । उन्माद आदि कामासक्ति के रोग है। ये सभी साध्य-असाध्य दोनों कक्षा के है। कई रोग जो साध्य है वे जल्दी ठीक हो जाते हैं, लेकिन जीव लेकर ही जाने वाले असाध्य रोगों की सूचि भी आज छोटी नहीं है। शरीर तंत्र में होने वाले शारीरिक रोगों से आज सभी संतप्त है। उससे बचने के लिए सैकड़ों उपाय ढूंढ निकाले हैं। कई प्रकार के इलाज कराए जाते हैं। लेकिन इसी शरीर के भीतर रहनेवाली जो चेतना शक्ति है, जिसे आत्मा कहते हैं जिसके आधार पर ही यह जीवन चल रहा है। आत्मा चली जाय तो इस मृत शरीर की कोई किंमत नहीं है। आग में जलाकर भस्म कर देते हैं। अतः इतना अमूल्य किमति, तत्त्व आत्मा जो केन्द्र में हैं उसके बारे में क्यों कभी कोई
कर्म की गति नयारी
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