SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नाम से भी कहते हैं। बादर अर्थात् स्थूल स्वरूप में आलु, प्याज, लहसून, अदरक, शकरकन्द, गाजर, मूला, थेग की भाजी, पालक की भाजी आदि ३२ मुख्य प्रकारों से पहचानते हैं । इनके भक्षण से, सेवन से अनन्त जीवों की हिंसा होती है अतः शास्त्रकारों ने भक्षण का निषेध किया है। बारिश में दिवारों पर लगी हुई काई शैवाल, हरे वर्ण की लील एवं पांच वर्णों की फूग ये फूलन ये भी अनन्तकाय है। सूक्ष्मतम जीव विज्ञान की वनस्पति - शास्त्र की यह बात है । अब रही बात सूक्ष्म साधारण वनस्पतिकाय की । इसी का दूसरा नाम निगोद है । अत्यन्त सूक्ष्म रूप में अदृश्य गोले के रूप में इनका अस्तित्व चौदह राजलोक के समस्त ब्रह्मांड़ के कोने-कोने में स्वीकारा गया है । ये निगोद के गोले ही अनंत जीवों की खान है । 1 निगोद के गोले का जीवन स्वरूप : इस निगोद के असंख्य गोले हैं। जबकि एक गोले में जीवों की संख्या अनंत है । इनका जीवन इसी गोले में ही रहता है। जन्म-मरण सतत एवं अविरत इसी गोले में होता है। निगोद में प्रतिक्षण जन्म लेना और प्रतिक्षण मरना यही सतत चलता रहता है। अनन्तज्ञानी सर्वज्ञ भगवंतों ने बताया है कि एक श्वास परिमित कालअर्थात् हम सामान्य तौर पर १ बार श्वास लेते हैं- उसमें जितना समय लगता है उतने में गोले में रहे हुए ये निगोद के जीव साडा सत्रह भव करते हैं,अर्थात् १७ बार जन्म लेना और मरना तथा १८ वीं बार जन्म लेना पर मृत्यु होने से पहले श्वास का काल पूरा हो जाता है । इसलिए साडा सत्रह भव कहे जाते हैं। इनका न्यूनतम आयुष्य काल २५६ आवलिका का होता है । असंख्य समयों की एक आवलिका होती हैं। ऐसी २५६ आवलिका का एक लघुतम क्षुल्लक भव होता है। ऐसे साडा सत्रह भव १ श्वास लेने के काल में पूरे होते हैं । २ घड़ी अर्थात् ४८ मिनीट का जो अंतर्मुहुर्त का काल होता है उसमें ६५५३६ भव होते हैं । २५६ आवलिका का १ जन्म । और अंतमुहुर्त अर्थात् ४८ मिनीट (२ घड़ी) में १६७७७२१६ (१ करोड़, ६७ लाख, हजार, २१६) आवलिकाएं होती है । अर्थात् अब विचार कीजीए - सतत - अविरत जन्म-मरण के सिवाय वहां क्या रहा ? जन्म लेना और मरना । जन्म लेना अर्थात् शरीर रचना करना - देह संयोग-फिर जीवन जीना और फिर मरना अर्थात् देह लेना छोड़ना - देह वियोग | फिर वापिस उसी काय में जन्म लेना- फिर मरना ... सोचिए, अनंत काल में उस गोले में निगोदिया जीव के कितने जन्म हु कितने मरण हुए। जबकि काल ही अनंत वर्षों का बीता है तो जन्म-मरण तो अनंत x अनंत हुए हैं। न तो काल का अन्त और न ही भव संख्या का अन्त । ७७ निगोद में भी जीव कर्म युक्त है २१ -: अब जब जन्म-मरण की बात आई तो यह कर्माधीन है । देह रचना की - कर्म की गति नयारी
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy