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________________ लिखता है तो पढ़कर मैं भी आश्चर्य चकित रह गया कि ऐसे आदमी का स्वर्ग में वास कैसे हो गया? उसको स्वर्ग में जगह मिल ही नहीं सकती । कैसे स्वर्ग में चला गया ? मुझे तो विश्वास ही नहीं होता। इसलिए मैंने प्रत्युत्तर में पत्र लिखते हुए लिखा कि 'तुम्हारे पिताजी का स्वर्गवास हुआ है यह जानकर बड़ा भारी दुःख हुआ है, बहुत खराब हुआ है। बहुत ही बुरा हुआ ।' उनका तो नरक में वास होना चाहिए था, स्वर्गवास कहां से हो गया? यह तात्पर्य और भावार्थ सुनकर मैं भी आश्चर्यचकित रह गया। यह लो, आपने जिसको मित्र सगे-सम्बन्धी रिश्तेदार माना है वे ही आपको स्पष्ट जवाब दे देते हैं । किसी को भी आपके व्दारा लिखा हुआ स्वर्गवास शब्द मान्य नहीं है, पसंद नहीं है । इस तरह सभी के व्दारा लिखा जाय और सभी का स्वर्गमें ही वास होता हो तो फिर नरक आदि गतियां खाली ही पड़ी रहती ! लेकिन नहीं, वहाँ की संख्या भी बड़ी लम्बी चौड़ी है। मनुष्य गतिमें संख्यात जीव 5 तिर्यंच गतिमें अनन्त जीव चार गति में जीवों की संख्या : देवगति में असंख्य जीव - नरकगति असंख्य जीव इस तरह तीन प्रकार की संख्या मानी गई है (१) जो गिनी जा सके वह संख्यात है (२) जो गिनती के बाहर हो वह असंख्यात है (३) और जिसका कभी अंत ही नहीं आता है वह अनंत है। इन तीन संख्याओं की व्यवस्था चार गति में की गई है। (१) देव गति में असंख्य जीव है (२) नरक गति में भी असंख्य जीव है (३) तिर्यंच गति में अनंत जीव है (४) जबकि मनुष्य गति में सबसे कम संख्यात ही जीव है । सभी का स्वर्गवास (स्वर्ग में वास) ही होता तो नरक गति में असंख्य जीवों की संख्या कहां से आइ ? उसी तरह तिर्यंच गति में अनंत जीवों की संख्या कहां से आइ? जीव तो चारों गति में परिभ्रमण करता है। किसी एक ही गति में स्थिर नहीं रहता है। एक गतिवाद किसी ने भी स्वीकारा नहीं है और स्वीकारा भी हो तो सुसंगत सिध्द नहीं होगा । एक गतिवाद की विसंगता : यह जीव जिस योनि में जन्मा है उसी योनि में ही सदाकाल रहता है। पुनः पुनः मृत्यु पा कर फिर से उसी योनि में उसी स्वरूप में जन्म लेता है । अर्थात् भूतकाल में जैसा जन्म था, मृत्यु के बाद वैसा ही जन्म मिलता है। यदि वह मनुष्य है तो मनुष्य ११कर्म की गति नयारी
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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