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________________ यह जानने की इच्छा होना ईहा कहलाता है। मेरे पैर के नीचे क्या आया? किस वस्तु का स्पर्श हुआ था? मैंने किसे देखा था इत्यादि जानने की इच्छा होना यह ईहा कहलाता है। (३) अवाय (अपाय) - ईहा में जिसे जानने की इच्छा की थी उसका निर्णय हो जाना यह अपाय कहलाता है। यह अमुक है यह निर्णयात्मक ज्ञान अपाय है। जैसे-मेरे पैर के नीचे घास का स्पर्श हुआ है। मैंने मुकेश को देखा है। इत्यादि निर्णयात्मक ज्ञान अपाय है। . (४) धारणा - अपाय में जिसका निर्णय हो चुका है उसे यादशक्ति स्मृति में धारण करके रखना यह धारणा है। धारणा स्मृति का ही दूसरा नाम है। अपाय में हुए निर्णय को भविष्य के लम्बे काल तक अवधारण करके रखना यह धारणा कहलाता है। इस तरह अवग्रह से सामान्याकार ग्रहण करके, ईहा में जानने की इच्छा . प्रकट करके, अपाय में निर्णय करके धारणा में स्मृति रूप से धारण करके रखना यह ज्ञान की प्रक्रिया है। जगत के सभी जीवों को ज्ञान इसी पद्धति से होता है। यही प्रक्रिया सभी जीवों के लिए हैं । परंतु इतनी शीघ्र होती है कि पता भी नहीं लगता है। अवग्रह . अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह इस तरह अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह ये अवग्रह के दो भेद है। (१) अर्थावग्रह - जिस वस्तु का ग्रहण किया जाय वह ग्राह्य वस्तु सामान्य विशेषात्मक होने पर भी अर्थावग्रह से मात्र सामान्य रूप अर्थ (वस्तु) का ही ग्रहण होता है। नाम, जाति, गुण, क्रिया, द्रव्यादि की कल्पना से रहित सामान्य वस्तु का ही ज्ञान जिससे हो उसे अर्थावग्रह कहते हैं। जैसे कुछ है ऐसे पदार्थ का भास होना यह अर्थावग्रह है। अर्थ = वस्तु तथा अवग्रह अर्थात् ज्ञान। अर्थस्य अवग्रह वस्तु का ज्ञान यह अर्थावग्रह है। अर्थावग्रह का असाधारण कारण व्यंजनाग्रह है। व्यंजनावग्रह के तुरंत बाद अर्थावग्रह होता है। (२) व्यंजनावग्रह - व्यंजन + अवग्रह = व्यंजनावग्रह। उपकरण इन्द्रिय और शब्दादि परिणत द्रव्यों का परस्पर सम्बन्ध होने से व्यंजनावग्रह कहते हैं। 'व्यंजते-प्रकटी क्रियते अर्थो येन तद् व्यंजनम् यथा दीपेन घटः' - जिससे पदार्थ प्रकट हो वह व्यंजन कहलाता है। जैसे दिपक से घट प्रकट किया होता है। व्यंजनावग्रह असंख्य समयात्मक होता है। प्रत्येक समय में थोड़ी थोड़ी ज्ञान की मात्रा प्रकट होती जाती है परंतु व्यक्त रूप से दिखाई नहीं पड़ती। जबकि व्यंजनावग्रह के तुरंत बाद अर्थावग्रह होने के कारण व्यंजनावग्रह भी ज्ञान ही कहलाएगा। यह (१९१) कर्म की गति नयारी
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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