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________________ सम्यग् ज्ञान : स्वार्थाकारपरिच्छेदो निश्चितो बाधवर्जितः । सदा सर्वत्र सर्वस्य सम्यग् ज्ञानमनेकधा ।। तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक महाग्रंथ में सम्यग् ज्ञान की व्याख्या करते हुए लिखा है कि-संशय-विपर्यय और अनध्यवसायादि बाधकारक दोष रहित निश्चयात्मक स्वार्थाकार ज्ञान सम्यक् ज्ञान कहा जाता है। तत्त्वार्थवार्तिक में इसी व्याख्या को स्पष्ट करते हुए कहा है कि - "नयप्रमाण; विकल्पपूर्वको जीवद्यर्थं याथात्म्यावगमः सम्यग्ज्ञानम्'' नय और प्रमाण के विकल्पपूर्वक जीवादि पदार्थों का जो जैसे हैं उनका वैसा ही यथार्थज्ञान सम्यग् ज्ञान कहलाता है। सम्यग् का ही विशेष अर्थ है कि मोह-संशय-विपर्यय आदि से रहित यथार्थ वास्तविक ज्ञान ही सम्यग् ज्ञान होता है, अर्थात् जो जीवादि पदार्थ जैसा है, जिस मूलभूत स्वरूप में है उसे उसी स्वरूप में देखना-जानना यह यथार्थता ही सम्यग स्वरूप की द्योतक है। जीव-अजीवादि जो जैसे हैं उससे विपरीत देखें या समझे तो वह विपरीत ज्ञान विपर्यय या विपर्यास के कारण मिथ्याज्ञान कहलाएगा। यह संशयादि रहित निश्चयात्मक ज्ञान नय-और प्रमाणों के आधार पर होता है, अतः नय-प्रमाण का यह जोड़ा है। “प्रमाणनयैरधिगमः" अधिगम अर्थात् ज्ञान । प्रमाण और नय उभय पद्धति से ज्ञान होता है अतः उमास्वाति महाराज ने तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में यह सूत्र देकर उपरोक्त बात को स्पष्ट की है। अतः दोनों की सप्त भंगीयां बनाई गई हैं (१) प्रमाण सप्तभंगी और (२) नय सप्तभंगी। प्रमाण सप्तभंगी में कथंचित की अपेक्षा के साथ सात भंग बनते हैं। इन सातों भेदों की अपेक्षा को समझकर पदार्थ का यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया जाय वह सही ज्ञान का स्वरूप बनेगा,और दूसरी नय सप्तभंगी में सात नयों के जरिये पदार्थ का बोध प्राप्त किया जाय तो सम्मिलित रूप सम्यग् ज्ञान होगा। परंतु निरपेक्ष भाव से यदि एक ही नय से ज्ञान प्राप्त किया जाय तो वह पूर्ण ज्ञान नहीं होगा, क्योंकि नय एकांशग्राही है,सर्वांशग्राही प्रत्येक नय नहीं है। यदि सभी नयों की दृष्टि को एकत्र करके फिर वस्तु का निर्णय किया जाय तो वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान होगा। उसी तरह प्रमाण सप्तभंगी के सातों भगों से अस्ति-नास्ति-भेदाभेद, सामान्य विशेषादि गुण धर्मों की दृष्टि से सभी भंगों से सापेक्ष ज्ञान प्राप्त किया जाय तो वह वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान होगा। वस्तु के संपूर्ण स्वरूप का यथार्थ बोध प्राप्त करने के लिए प्रमाण और नयों की आवश्यकता होती है,अतः प्रमाण और नय ये ज्ञान की प्रक्रिया के रूप में है। ज्ञान बोधक पद्धति है। प्रमाण-नय से ज्ञान : कर्म की गति नयारी (१६८
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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