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________________ नमो नाणस्स दर्शन में ज्ञान का विशिष्ट । विशिष्ट स्वरूप नाणेण जाणइ भावे, दंसणेण य सद्दहे । चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण य परिसुज्झइ ।। (उत्तरा. अ. २८. गा. ३५) श्री उत्तराध्ययन जिनागम में फरमाया है कि ज्ञान से हम भाव - अर्थात् पदार्थ-तत्त्व को जानते हैं, उन्हीं जाने हुए पदार्थों पर दर्शन से श्रद्धा की जाती है। श्रद्धागम्य उनके आचरण के लिए जीव चारित्र योग से निग्रह करता है अर्थात् चारित्र गुण से मन-वचन-काया के योगों का निग्रह करता है तथा अंत में निग्रहरूप तप के द्वारा साधक विशुद्धि प्राप्त करता है। शुद्ध-विशुद्ध स्थितप्रज्ञ बनता है। इस तरह ज्ञान-दर्शन-चारित्र तथा तप ये चारों आत्म गुण बहुत ही उपयोगी है। ये ही गुण जब आचार बन जाते हैं तब इनका आचरण करना ही धर्म हो जाता है। ज्ञानाचार धर्म में ज्ञान का आचरण, दर्शनाचार धर्म में दर्शन का आचरण, चारित्राचार धर्म में चारित्र का आचरण तथा तपाचार धर्म में तप का आचरण किया जाता है। गुण ही धर्म बन जाते हैं। अतः स्वगुणोपासना सर्वोत्कृष्ट धर्म है। ज्ञान-दर्शनादि गुण है। स्व नाम आत्मा। आत्मा के ही गुण ज्ञानादि है। इन्हीं की उपासना करनी है। जो स्व में निहीत है उसीकी उपासना करनी है। तभी जाकर आत्म गुणों पर आए हुए तथाप्रकार के आवरण जो कर्म के नाम से पहचाने जाते हैं। उन्ही कर्मों का नाश उन उन आच्छादित गुणों की उपासना से ही होगा। औषधि जैसे रोग नाशक है वैसे ही गणोपासना धर्म गुणाच्छादक-गुण आवरक कर्म की नाशक है। कर्म क्षय कारक है। अतः जैसे जैसे कर्म का आवरण नष्ट होता जाएगा वैसे वैसे आच्छादित गुणों का प्रादुर्भाव होगा। गुण प्रकट होते जाएंगे। यदि सर्वथा सर्व कर्मों का क्षय हो जाय और सर्व गुण सम्पूर्ण रूप से प्रकट हो जाय तो वही मुक्सावस्था है। उसे ही मोक्ष कहते हैं। आत्मा परम शुद्धपरम विशुद्ध परमात्मा स्वरूप बन जाय। सिद्ध-बुद्ध-मुक्त-निरंजन-निराकार बनना ही आत्मा का मोक्ष है,अतः एक निश्चित है कि हमें आत्मगणों की उपासना, उन्हीं की आराधना-साधना पर विशेष बल देना पडेगा। कर्म क्षय निर्जरा की साधना पर ज्यादा भार देना पड़ेगा । तथाप्रकार की साधना में सहकारी सहयोगी एवं उपयोगी देव-गुरु का आलंबन लेना ही पड़ेगा,एवं आलंबन जब बहुत ही ऊंचा आदर्श है तो (१५९) कर्म की गति नयारी
SR No.002477
Book TitleKarm Ki Gati Nyari Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Rsearch Foundation Viralayam
Publication Year2012
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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