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है। ठीक उसी तरह आत्मा को देखने की शक्ति अनंत है। अतः अनंत दर्शन गुण कहा जाता है। परंतु इस अनंत दर्शन पर आया हुआ दर्शनावरणीय कर्म इस गुण को ढक देता है - दबा देता है। परिणाम स्वरूप अनंत दर्शन शक्ति होते हुए भी आत्मा सब कुछ देख नहीं पाती । यह दर्शनावरणीय कर्म का कार्य है। जिससे इन्द्रियां हीन मिलती है। क्षीण होती है। दिखाई देना, सुनाई देना आदि कार्य में बाधा पहुँचती है।
(३) मधुलिप्त तलवार जैसा वेदनीद कर्म - जैसे एक मनुष्य तलवार पर मधु को लगाकर चाट रहा है। मधु मधुर लगता है तब तक चाट रहा है, परंतु मधु समाप्त
होने पर स्वादासक्ति के कारण चाटते रहने पर
जब जीभ कट जाती है, तब निकलते खून के ॥ । कारण वेदना होती है-पीड़ा होती है। मधु चाटते
समय सुख आनंद और मधु की समाप्ति के बाद जीभ कटने पर दुःख होता है। ठीक उसी तरह आत्मा पर वेदनीय कर्म है। वेदना-संवेदना
सुखात्मक और दुःखात्मक उभय प्रकार की होती है। वेदनीय कर्म के दो कार्य है। सुखानुभव को शाता वेदनीय और दुःखानुभव को अशाता वेदनीय कर्म कहते हैं। अतः वेदनीय कर्म को मधुलिप्त तलवार की उपमा दी गई है।
(४) मदिरापान के जैसा मोहनीय कर्म - मोहनीय कर्म का स्वभाव
HA RYAमदिरापान किये हुए मनुष्य के जैसा है,जैसे एक IAS
-मनुष्य शराब पीता है। शराब से शराबी विवेकPAH E LLO भान-भूल जाता है। और अंट-संट बकने लगता
है। बोलने का भी विवेक नहीं और क्रिया* व्यवहार का भी विवेक नहीं रहता, उसी तरह
मोहनीय कर्म से ग्रस्त जीव का अनंत चारित्र गुण ढक जाता है। परिणाम स्वरूप वास्तविकता-यथार्थता भूलकर मिथ्या प्रवृत्ति करता है। जो मेरा नहीं है उसे भी मेरा मानता है। मेरेपने की ममत्व-मोहवाली बुद्धि बन जाती है। यही मोहनीय कर्म का स्वभाव एवं कार्य मदिरापान किये हुए मनुष्य के जैसा
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(५) बेड़ी (हथकड़ी) जैसा - आयुष्य कर्म - एक - एक अपराधी को पकड़कर हथकड़ी लगाकर जेल में डाल दिया जाता है। घूमने-फिरने वाला मनुष्य जिस तरह जेल में बंदिस्त-कैदी होकर
कर्म की गति नयारी
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