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उपासना के लिए, परम आलम्बन के स्वरूप में उपास्य तत्त्व के रूप में परमात्मापरम विशुद्ध रागद्वेष रहित वीतराग - सर्वज्ञ भगवान की उपासना के लिए हम आलम्बन अवश्य लें जिससे कर्मक्षय में वैसी सुंदर प्रेरणा प्राप्त हो । उसके जैसा बनने की दिशा प्राप्त हो इसलिए परमात्मा-परमेश्वर की उपासना आवश्यक है । जापस्तुति - पूजा - पूजन - ध्यानादि उपासना के तरीके हैं। इन माध्यमों से उपासना होगी। ऐसी उपासना में उपास्य तत्त्व परमात्मा को, आलम्बन- उच्च ही नहीं सर्वोच्च आदर्श के रूप में बिराजमान करने के लिए सुंदर मंदिर होना जरूरी है। सुंदर मंदिर में प्रभु की सुंदर प्रतिमा, अर्थात् प्रभु की प्रतिकृति होना भी आवश्यक है। वही आलम्बन है। भाव विशुद्धि आदि के लिए द्रव्य के माध्यम से भक्ति - पूजा - दर्शन आदि आवश्यक है । अतः निष्कर्ष यह निकलता है कि जीवों के कर्म का कर्ता ईश्वर नहीं जीव स्वयं है। सुख - दुःख का कर्ता भी जीव स्वयं है । फलदाता भी ईश्वर नहीं जीव स्वयं है । चेतनात्मा ही स्वयं कर्म का कर्ता है, वही कर्म करता है और कृत कर्मों का फल भी वही भुगतता है । यही जीव का स्वरूप बताते हुए हरीभद्रसूरि महाराज ने लिखा है कि
यः कर्ता कर्म भेदानां, भोक्ता कर्म फलस्य च संसर्ता परिनिर्वाता, सह्यात्मा नान्य लक्षणः ।।
जो स्वयं कर्म का कर्ता हो, और किये हुए कर्मों के फल का भोक्ता हो, तथा जो संसार में सतत परिभ्रमण करता हो वही संसारी जीव है । कर्म एक क्रिया विशेष जन्य है | अतः क्रिया अपने आप हो नहीं सकती । क्रिया का कोई न कोई कर्ता होना ही चाहिए। वह कर्ता ईश्वर नहीं जीव है। जीवात्मा ही कर्म करती है और किये हुए कर्मों का फल भी वह स्वयं भुगतती है ।
कर्म सत्ता न मानें तो क्या ?
रोटी न खाएं तो क्या होगा ? भोजन न करें तो क्या होगा ? शादी न करें तो क्या होगा ? पढ़ाई न करें तो क्या होगा ? व्यापार - नोकरी न करें तो क्या होगा ? खाना, भोजन करना, पढ़ाई करना, नौकरी करना आदि क्रियाएं है । इन सभी क्रियाओं का कर्ता तो एकमात्र जीव है। जीव नहीं होगा तो क्रिया करेगा कौन? क्रिया का कर्ता कौन सिद्ध होगा ? कर्ता के अभाव में कोई क्रिया नहीं होती है । अतः क्रियाएं जगत में होती है तो उसका कर्ता जीव भी अवश्य मानना ही पड़ेगा । उसी तरह कर्म भी क्या हैं? कर्म क्रिया जन्य है । अतः इस क्रिया का कर्ता भी जीव ही है। वही कर्म करता है । यदि ऐसे कर्मों को न माना जाय तो क्या होगा ? यह विचार करिए । अभी तक जो हम सोचते आए हैं, जिस बात पर विचार किया हैं कि जगत है, जगत विचित्रताओं से भरा पड़ा है। समस्त संसार में नाना प्रकार की विचित्रता, कर्म की गति नयारी
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