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कम समता का अस्तित्व।
ईश्वरवाद की चर्चा कर चुके हैं इससे यह फलित हुआ कि ईश्वर न तो सृष्टि का कर्ता सिद्ध हो सकता है और न ही ईश्वर जीवों के कर्म का कर्ता व कर्म फलदाता भी सिद्ध हो सकता है। तो फिर संसार की विचित्रता, विविधता एवं विषमता आदि का कारण कौन हो सकता है ? जीवों के सुख-दुःख का कारण कौन हो सकता है? इस प्रश्न के उत्तर में दार्शनिकों ने काल-स्वभाव-नियति-पूर्वकृत कर्म-पुरूषार्थ एवं यदृच्छा व अज्ञानादि अन्य कई कारणों पर विचार विमर्श किया है । उसकी संक्षेप में यहां विचारणा करें। पांच कारणवाद :कालादि की कारणता :
कालादीनां च कर्तृत्वं, मन्यन्तेऽन्ये प्रवादिनः।
केवलानां तदन्ये तु, मिथः सामग्रयपेक्षया ।। . शास्त्रवार्ता समुच्चय महाग्रंथ में तार्किक शिरोमणि पूज्य हरिभद्र सूरि महाराज ने द्वितीय स्तबक में कालादि की चर्चा करते हुए लिखा है कि कुछ एकान्तवादी विचारक एक मात्र काल या स्वभावादि को ही कार्य का हेतु मानते हैं। अर्थात् संसार की विचित्रता आदि तथा जीवों के सुख-दुःखादि में कारण रूप से काल-स्वभाव-नियति-पूर्वकृत कर्मादि भिन्न-भिन्न को कारण मानते हैं । यह निरपेक्ष एकान्तवादी विचारधारा है। इससे भिन्न अनेकान्तवादी साक्षेपदृष्टि से कालादि को सापेक्ष रूप से,सहकारी-सहयोगी कारण मानते हैं। कारण समूहसामग्री के घटक रूप में सहकारी होकर कार्य के कारण होते हैं। व्यक्तिगत किसी भी एक को ही सम्पूर्ण कारण नहीं मान सकते। सिर्फ एकान्त पक्ष लेकर कालवादी, स्वभाववादी, नियतिवादी आदि दार्शनिक विचारधाराओं का स्वतंत्र पक्ष क्या है? उसकी संक्षेप में थोड़ी समीक्षा यहां देखें। कालवाद :
कालः पचति भूतानि, कालः, संहरति प्रजा ।
कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो ही दुरतिक्रमः ।।
सिर्फ काल को मानकर चलने वाले एकान्त कालवादीयों का कहना है कि-काल ही उत्पन्न पदार्थों का पाक करता है । काल पृथ्वी-अग्नि-वायु आदि भूतों को पकाता है । काल ही प्रजा का संहार करता है । काल ही सोये हुए को जगाता है
कर्म की गति नयारी
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