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संसार चक्र एवं आत्म परिभ्रमण
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परमपिता परमात्मा चरम तीर्थपति श्रमण भगवान श्री महावीरस्वामी को नमस्कार पूर्वक.
न सा जाइ, न तत् जोणी, न तत् कुलं न तत् ठाणं । जत्थ जीवो अणंतसो, न जम्मा न मुआ ।।
ऐसी कोई जाति नहीं है, ऐसी कोई योनि नहीं है, ऐसा कोई कुल नहीं है, . ऐसा कोई स्थान(क्षेत्र) नहीं है, जहां पर जीव अनंतबार न-जन्मा न हो और न मरा हो, अर्थात् समस्त ब्रह्मांड की एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक की सभी जातियों में, ८४ लाख जीव योनियों में, सभी कुलों में, सभी स्थानों (क्षेत्रो) में यह जीव अनंत बार जन्म
मरण धारण कर चुका है। अविरत परिभ्रमण :
इस ब्रह्मांड में तीन लोक हैं (१) देवलोक, जिसे ऊर्ध्व लोक (स्वर्ग) भी कहते है। (२) मनुष्य लोक (मृत्यु लोक) या तिर्छा
लोक (३) अधोलोक - पाताल या नरक -मनुष्यलोक लोक। इन तीनों लोकों में जीवसृष्टी है।
देवलोक जिसे स्वर्ग कहते हैं वहां स्वर्गीय देवीदेवता रहते हैं। तिर्यक् लोक में मनुष्य और तिर्यक् अर्थात् पशु-पक्षी रहते हैं। अधोलोक में सात नरकों में नारकी जीव रहते हैं। इन तीनों लोकों में जीव का गमनागमन अविरत चलता रहता है। इन्हीं तीनों लोक के जीवों का चार
गति में विभाजन जैन शास्त्रों में किया गया है। मृत्यु के बाद जीव जिस क्षेत्र में जाकर जन्म लेता है वह उसकी गति कहलाती है। इन्ही चारों गतियों में जीव अविरत परिभ्रमण करता है। चारों गतियों में जाता हुआ जीव तीन लोक को अपना क्षेत्र बनाता है। उस-उस क्षेत्र में-लोक में जीव रहता है।
कर्म की गति तयारी
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नरकलोक /