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________________ दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर ८३५ (अरस-विरस-सीय-लुक्खणिज्जप्पपाणभोयणाई) रसहीन, चलित रस वाले या विकृत,ठंडे,रूखे,बासी,सत्त्वहीन(अपोषक)पेय पदार्थ और भोजन (दोसीणवावन्नकुहियपूइय अमणुन्नविणट्ठ-पसूयबहुदुभिगंधाइ) रातबासी, रंग बदला हुआ, सड़ी हुई बदबू वाला, दुर्गन्धयुक्त, अमनोज्ञ, विनष्ट, काई तथा फूलन से युक्त, अतएव अत्यन्त बदबूदार (तित्तकडुयकसायअंबिलरसलिंडनीरसाई) तीखे, कड़वे, कसले, खट्ट, शैवाल अर्थात्काई के सहित गन्दे जल के समान सड़े हुए जो दुर्गन्धमय एवं नीरस पदार्थ हैं, (तेसु) उनमें तथा (एवमादिएसु अन्नेसु अमणुन्नपावकेसु रसेस) इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ एवं पापजन्य अशुभ रसो के सम्बन्ध में (समणेण) अपरिग्रही श्रमण को (न रूसियव्वं) रोष नहीं करना चाहिए, (जाव) यावत् उनमें द्वेष, निन्दा, घृणा, उपेक्षा, मारपीट, डांट-फटकार, तोड़फोड़ या नफरत नहीं करनी चाहिए । इस प्रकार जिह्वेन्द्रियभावना से संस्कारित साधु को अन्तरात्मा मनोज्ञ-अमनोज्ञ तथा शुभाशुभ रसों में राग और द्वेष को रोक लेती है तथा वह अपरिग्रहयुक्त साधु मनवचनकाया का संगोपन करके संवृत और सुस्थितेन्द्रिय बन कर (धम्म चरेज्ज) चारित्रधर्म का आचरण करता है। - (पंचमगं पुण) इसके बाद पांचवीं भावनावस्तु इस प्रकार है-(फासिदिएण) स्पर्शनेन्द्रिय से (मणुन्नभद्दकाइं) मनोज्ञ और स्पर्शनेन्द्रियप्रिय, सुहावने (फासाइं) स्पर्शों को (फासिय) स्पर्श करके रागादि नहीं करना चाहिए। (किं ते ?) वे स्पर्श कौन-कौन से हैं ? (दगमंडवहीरसेयचंदणसीयलविमलजलविविह · कुसुमसत्थर ओसोर-मुत्तिय - मुणाल-दोसिणा - पेहुण-उक्खेवग - तालियंटवीयणगजणियसुहसीयले) जिनमें जल के फव्वारे चलते रहते हैं, ऐसे मंडप, झरने, होरकहार, श्वेतचंदन, ठंडा स्वच्छ जल, विविध प्रकार के फूलों की शय्याएं, खसखस, मोती, कमल की डंडो, रात को छिटकने वाली चांदनी तथा मोर को पांखों के चन्द्र क के पंखों एव ताड़ के बनाये हुए पंखों से उत्पन्न सुखद शीतल (पवणे) हवा (य) तथा (गिम्हकाले सुहफासाणि बहूणि सयणाणि) ग्रीष्मकाल में सुखस्पर्श वाली बहुत-सी शय्याएँ (य) तथा (सिसिरकाले) शीतकाल में (पाउरणगुणे) ठंड मिटाने वाले गुणकारी ओढ़ने के कपड़े (य) तथा (अंगार-पतावणा) अंगारों से तापना-हाथ वगैरह सेकना; (य) तथा (आयवनिद्धमउय-सीयउसिणलहुया) •सूरज की धूप, चिकने कोमल शीतल, गर्म और हलके (अंगसुह-निव्वुइकरा) अंगों को सुख और मन को शान्ति-स्वस्थता देने वाले (य) तथा (जे उउसुहफासा) जो हेमन्त आदि ऋतु काल के अनुसार सुखद स्पर्श हैं (य)
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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