SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 874
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह - संवर ८२६ मनोज्ञ और अच्छे कर्णप्रिय (सद्दाई ) शब्द ( सोच्चा) सुन कर उनमें रागादि नहीं करना चाहिये । ( कि ते ?) वे शब्द कौन-से हैं ? ( वरमुरय-मुइंग-पणव ददुरकच्छभि-वीणा - विपंची- बल्लयि वद्धीसक-सुघोस- नंदि - सूसर - परवादिणि-वंस तूणक-पव्वकतंती - तल-ताल-तुडिय - निग्घोस गीयवाइयाइ ) बड़ा मृदंग, छोटा मृदंग- पखावज, छोटा ढोलक, चमड़े से मढ़े हुए मुख वाला कलश, वद्धीसक, नामक बाजा, वीणा, विपंची और वल्लकी नाम की वीणा, सुघोषा नामक घंटा, बारह बाजों का निनाद, वीणाविशेष, करताल, कांसे का ताल, इन सब बाजों की ध्वनि तथा गीत और सामान्य बाजे सुनकर (य) तथा ( नड-नट्टक- जल्ल- मल्ल-मुट्ठिक- वे लंबक - कहक- पवक-लासकआइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्ल-तालायरपकरणाणि य' बहूणि महुरसरगीतसुस्सराई ) नट, नर्त्तक नाचने वाले, बाजा बजाने वाले, पहलवान, मुक्केबाज मुष्टि युद्ध करने वाले, His fagun, कथाकार, तैराक, रासलीला करने वाले, शुभाशुभ फल बतानेवाले, बांस पर चढ़ कर खेल दिखाने वाले, चित्रपट दिखाने वाले, तूण (तुनतुनी) बजाने वाले, तुरंबी की वीणा बजाने वाले, ताल-मंजीरे बजानेवाले, व्यक्तियों की विविध क्रियाओं तथा अनेक मधुर स्वर में गायन गाने वालों के गीतों के मनोज्ञ स्वर तथा ( कंची - मेहला - कलावपत्तरक- पहेरक-पायजालग घंटिय-खिखिणि रयणोरुजालिय - छुद्दिय नेउर-चलण-मालियकगनियल - जालभूसण सद्दाणि) कांची- करधनी और मेखला -कटिआभूषण, गले का आभूषण ग्रैवेयक या हंसली, प्रतरक तथा पहेरक नामक गहने, झांझर-पैरों का आभूषण, घुंघरू, छोटी घुंघरियाँ, जांघों में पहनने का रत्नों का आभूषण, लघु किंकणी, नेउर, चरणमालिका, सोने के लंगर, जाल नामक आभूषणविशेष, इन सभी आभूषणों के शब्द, ( लीलाचंकम्ममाणाण) लीलापूर्वक मस्त चाल से चलती हुई कामिनियों के ( उदीरियाई) मुंह से निकली हुई ध्वनि (तरुणीजण - हसिय- भणिय-कल-रीभित-मंजुलाई ) युवतियों की परस्पर हंसीमजाक, आपस में वार्तालाप की मधुर गुंजित ध्वनि, तथा रतिक्रीड़ा की आवाज (य) और ( गुणवयणाणि) स्तुतिभरे वचन ( ब ) अथवा ( बहूणि महुरजणभासियाइ ) बहुत-से मधुर लोगों द्वारा निकाले गए इष्ट उद्गार (य) और (अन्ने एवमादिसु मणुन्नभद्दएस तेसु सद्देसु) और भी इसी प्रकार के अन्य मनोज्ञ एवं प्रिय उन उन शब्दों में (संजएण न सज्जियव्वं ) संयमी को आसक्ति नहीं करनी चाहिए ( न रज्जियव्वं ) राग नहीं करना चाहिए, (न गिज्झियव्वं ) गृद्धि नहीं करनी चाहिए, ( न मुज्झियव्वं ) मोह नहीं करना चाहिए, (न विनिग्धायं आवज्जि - यव्वं ) और न ही उन पर फिदा होकर उनके लिए अपने को या दूसरे को न्योछावर करना चाहिए ( न लुभिव्वं ) न उनके पाने के लिए ललचाना चाहिए, ( न तुसियव्वं ) न उनके प्राप्त होने पर प्रसन्नता व्यक्त करनी चाहिए, न खुशी के मारे उछलना चाहिए; न हसियoi) न विस्मयपूर्वक हंसना ही चाहिए (य) तथा ( न स च मइ' च -
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy