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________________ ८२० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र लीन रहेगा, उपशान्त या निश्चल रहेगा । उसके जीवन में किसी भौतिक वस्तु की तमन्ना नहीं होगी । एगे चरेज्ज धम्मं - ऐसा अपरिग्रही साधु अपरिग्रह की दृष्टि से अगर दूसरे किसी की सहायता न लेकर एकाकी रहता है तो उसमें दोष नहीं, गुण ही है । कई बार निपुण, गुणी या समविचार का सहायक नहीं मिलता, तब व्यर्थ ही कर्म - बन्धन, मानसिक क्लेश, वैमनस्य और आलोचना - प्रत्यालोचना के भाव पैदा होते हैं । उत्तराध्ययनसूत्र में तो स्पष्ट ही कहा है - . 'न वा लभेज्जा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एकवि पावाइ विवज्जयंतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥' अर्थात् — “गुण में अधिक या गुणों में सम निपुण सहायक न मिले तो कामभोगों में अनासक्त रहते हुये पापों का निवारण करता हुआ अकेला ही विचरण करे ।" चूँकि दो होने से ममत्व का भी परिग्रह बढ़ सकता है और कषाय का परिग्रह भी । इसलिए अन्तरंग परिग्रह की कमी के लिए योग्य, सशक्त और गुणवान साधक अकेला ही चारित्रधर्म का पालन करे, यही आशय यहाँ प्रतीत होता है । अपरिग्रह सिद्धान्त पर प्रवचन किसने और क्यों दिया ? -यह अपरिग्रह सिद्धान्त केवल काल्पनिक चीज नहीं है या किसी अयोग्य गुरु द्वारा चेले के कान में फूंकने वाला मंत्र नहीं है । अपरिग्रह का यह प्रवचनमंत्र भगवान् महावीर द्वारा अपरिग्रहव्रत की रक्षा के लिए बहुत स्पष्टरूप से स्वयं अनुभव करने के पश्चात् कहा गया है । यह आत्महितकर तो है ही, परलोक में भी परमभाव से युक्त है, भविष्य के लिए कल्याणकारी है, शुद्ध है, न्यायसंगत है, सरल है, श्रेष्ठ है और समस्त दुःखों और पापों को शान्त करने वाला है । अपरिग्रहव्रत की पांच भावनाएँ अपरिग्रही की पहिचान के लिए पूर्व सूत्रपाठ में विशद रूप से कह कर शास्त्रकार अब परिग्रह से विरतिरूप अपरिग्रहमहाव्रत की सुरक्षा के लिए पांच भावनाओं का निम्नोक्त सूत्रपाठ द्वारा निरूपण करते हैं मूलपाठ तस्स इमा पंच भावणाओ चरिमंस्स वयस्स होति परिग्गह- वेरमण रक्खणट्टयाए- पढमं सोइ दिएण सोच्चा सद्दाइ मन्नभद्दगाइ, किंते ? वरमुरय-मुइग पणव- ददुर-कच्छभि
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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