SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१ प्रथम अध्ययन | हिंसा - आश्रव द्रव्यहिंसा से भावहिंसा कई गुना बढ़कर होती है । दूसरों की हिंसा करने, सताने, जलाने या मारने की दुर्भावना वाला प्राणी जब उन पर शस्त्र, आग या पत्थर आदि फेंकता है, तो उस समय उन प्राणियों का हानि-लाभ या रक्षा-विनाश अपने-अपने शुभाशुभ कर्मों के अधीन होने से उसके फैंके हुए शस्त्रादि से हानि हो भी या न भी हो, किन्तु उसकी उक्त कषायमयी परिणति या दुर्भावना के कारण उसकी अपनी भावहिंसा या आत्महिंसा तो हो ही गई । मूल में तो भावहिंसा ही पापकर्म के बन्ध की कारण है, द्रव्यहिंसा तो प्राणघात आदि की क्रियामात्र है । जहाँ भावहिंसा नहीं होती, वहाँ केवल द्रव्य हिंसा से पापकर्म का बन्ध नहीं होता । जो मुनि महात्मा उपयोगपूर्वक चलते हैं, उनके पैर के नीचे अकस्मात् कोई जीव आकर दब जाय या कुचल जाय, तो भी उनको मारने या सताने की भावना न होने से वहाँ भावहिंसा नहीं होती, केवल द्रव्यहिंसा होती है, जो पापकर्म के बन्ध की कारण नहीं है । प्रमाण के लिए देखिये यह पाठ णिग्गमणद्वाणे । "उच्चालिदम्मि पावे इरियासमिदस्स आवदेज्ज कुलिंगो वा, मरेज्ज वा तज्जोगमासज्ज ॥ ण हि तस्स तणिमित्तो बंधो सुमो वि देसिदो समए । मुच्छा परिग्गहोत्ति अझप्पमाणदो भणिदो ॥" अर्थात्– 'ईर्यासमितिपूर्वक चलने वाले साधु के आहारादि के निमित्त गमन करते समय पैर उठाने पर यदि कोई त्रसजन्तु अकस्मात् पैर के नीचे आकर दब जाय या उसके योग से मर जाय, तो भी उसके निमित्त से उस साधु को जरा (सूक्ष्म) भी बन्ध होना आगम में नहीं बताया है । क्योंकि उसके परिणाम उस जीव को मारने या सताने के नहीं थे, ईर्यासमितियुक्त चलने के थे । वास्तव में मूर्च्छारूप आत्मपरिणाम ही परिग्रह है, बन्ध है ।" इस प्रकार सर्वत्र हिंसा के परिणामों से ही हिंसाजन्य पापकर्म का बन्ध होता है । तंदुलमत्स्य जीवों की वधरूप क्रिया (द्रव्यहिंसा) बिलकुल नहीं करता, लेकिन मर कर अपने उन उसके परिणाम जीवों को निगलने व मारने के होने से वह हिंसा रूप परिणामों (भावहिंसा) के कारण सातवें नरक का मेहमान बनता है । इसलिए भावहिंसा ही पापकर्म के बन्ध की कारण है । भावहिंसा आत्मा के ज्ञानादि १ – इसके लिए और भी प्रमाण देखिये - " अणगारस्स णं भंते भावियप्पणो पुरो दुहओ जुगमाया पेहाए रीयं रीयमाणस्स पायस्स अहे कुक्कुडपोए वा वट्टापोए वा कुलिंगच्छाए वा परियावज्जेज्जा, तस्स णं भंते ! कि इरियावहिया किरिया कज्जइ संपराइया किरिया कज्जइ ?' 'गोयमा ! अणगारस्स णं भावियप्पणो जाव तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ ।' 'से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ ? जहा सत्तमसए संबुडुद्दे सए जाव अट्ठो निक्खित्तो ।" - भगवतीसूत्र, शतक १८ उ०८, सूत्र १.
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy