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दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर
जिस परिग्रहत्यागरूप अन्तिम संवर द्वार में गाँव, खान, नगर, खेट (धूल के कोट) वाली बस्ती, कस्बा, मडम्ब, बन्दरगाह, विशाल नगर. या आश्रम में प्राप्त हुए किसी भी अल्पमूल्य या बहुमूल्य, छोटे या बड़े, सचेतन या अचेतन, शंख आदि त्रस काय के तथा रत्नादि स्थावर काय के सामान्य द्रव्यसमूह तथा सोना, चांदी, खेत और मकान ग्रहण करना योग्य नहीं है । दासी, दास, नौकर चाकर, घोड़ा, हाथी, बकरा तथा रथादि वाहन अथवा गोल्लदेश प्रसिद्ध जम्पान (पालकीविशेष) तथा शय्या का ग्रहण करना भी ठीक नहीं है । न छाता ग्रहण करना चाहिए, न कमंडलु । न जूते खड़ाऊं आदि ग्रहण करने चाहिएँ और न ही मोरपिच्छ, बांस आदि का पंखा तथा ताड़ का पंखा ही ग्रहण करना उचित है । तथा न ही लोहा, बंग, तांबा, सीसा, कांसा, चांदी, सोना, मणि, मोती या मोती का आधारपुटक-सीप, शंख, हाथीदांत, हाथीदांत का बना हुआ मणि, सींग, पाषाण, . उत्तम कांच, कपड़ा, चमड़ा अथवा इन सबके बने हुए पात्र तथा दूसरों के चित्त में लेने की उत्कण्ठा और लोभ पैदा करने वाली इसी तरह की अन्य बहुमूल्य वस्तुओं का ग्रहण करना, झपट लेना अथवा उसकी वृद्धि या रक्षा करना मूल गुण आदि से विभूषित अपरिग्रही साधु के लिए उचित नहीं है । संयमी साधु को औषध, भैषज्य (अनेक वस्तुओं के संयोग से बनी हुई दवा) तथा भोजन के लिए फूल, फल, कंद, मूल आदि तथा जिनमें सन नामक धान्य सतरहवाँ है, ऐसे सभी प्रकार के अनाजों का मन-वचन-कायरूप तीनों योगों से ग्रहण करना ठीक नहीं है ।
प्रश्न होता है कि ऐसा न करने का क्या कारण है ? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं—अनन्तज्ञान और अनन्त-दर्शन के धारक, शील (सदाचार या समाधि), मूल गुणादि, विनय, तप और संयम के नायक-मार्गदर्शक, सारे जगत् के प्रति वात्सल्य रखने वाले, त्रिलोकपूज्य, केवल ज्ञानियों के इन्द्र तीर्थकरों ने उक्त फूल, फल, धान्य आदि को त्रसजीवों की योनि के रूप में देखा है। योनि का नाश करना उचित नहीं है, इसी कारण श्रमणसिंह उन फल-फूल आदि का त्याग करते हैं। और जो भात, उड़द या लोभिया (चंवला), अथवा खिले हए मूंग आदि, गंज नामक भोज्यविशेष, सत्तू, बेर आदि की कुटटी-चूर्ण, भुने हुए या सेके हुए चने आदि अनाज, तिल की कुट्टी