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________________ ७८६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र उत्तम साधुओं को (सन्निहिं काउं) संग्रह करना या अपने पास संचित करके रखना (न कप्पति) उचित नहीं है । (जं पि य) तथा जो (उद्दिट्ठ-ठविय-रचियग-पज्जवजातं) साधु के उद्देश्य-निमित्त से गृहस्थ द्वारा बनाया गया, साधु के लिए मन में संकल्प करके अलग से रखा हुआ, लड्डू आदि के चूरे को आग में गर्म करके फिर से लड्डू आदि के रूप में बनाया गया, उद्दिष्ट वस्तु में दूसरी वस्तुएं मिलाकर बनाया गया और भी कोई पदार्थ तथा (पकिण्ण-पाउकरण-पामिच्च) भूमि पर बिखरते हुए लाया गया, दीपक जलाकर दिया गया, या उधार लेकर तैयार किया गया भोज्य पदार्थ, (मीसकजातं) साधु और गृहस्थ दोनों के मिलेजुले उद्देश्य से तैयार किया हुआ, (कीयकडपाहुडं) साधु के लिए खरीदा गया, साधु को भेंट रूप में दिया गया (व) अथवा (दाणट्ठ-पुन्न-पगडं) दान के लिए या पुण्य के लिए बनाया हुआ (समणवणीमगठ्याए वा कयं) निर्ग्रन्थ, बौद्ध, तापस, गैरिक और आजीविक इन पांचों में से किन्हीं श्रमणों के लिए तथा याचकों-भिखारियों के लिए बनाया गया भोज्य पदार्थ तथा(पच्छाकम्म) भिक्षा देने के बाद सचित्त पानी से जगह, हाथ या बर्तन वगैरह धोना, (पुरेकम्म) आहार देने से पहले जगह, हाथ या बर्तन आदि सचित्त पानी से धोना (नितिकम्म) सदा एक ही घर से लिया जाने वाला आहार, (मक्खियं) सचित्त पानी के संसर्ग से युक्त दिया गया आहार, (अतिरित्त) परिमाण से अधिक आहार (मोहरं चेव) भिक्षा लेने के पहले या पीछे दाता की प्रशंसा करने से या बहुत कहा सुनी करने पर प्राप्त आहार, (सयग्गह) दाता के अभाव में इधर-उधर की बात करके या धर्माशीष देकर स्वयं लिया हुआ आहार (आहडं) साधु के सम्मुख लाया हुआ आहार, (मट्टिउवलित्तं) मिट्टी, गोबर आदि से लिप्त हाथ से दिया गया आहार, (अच्छेज्ज) नौकर आदि से जबरन छीनकर दिया गया आहार, (अणीसठ्ठ) दाता का अपने अधिकार का न हो, ऐसा अनेक व्यक्तियों के अधिकार का दिया हुआ आहार और जं तं) यदि यह आहारादि पदार्थ (तिहीसु) मदनत्रयोदशी आदि तिथियों के मौके पर (जन्नेसु) यज्ञों के अवसर पर, (ऊसवेसु) उत्सवों के समय पर बनाया गया, (अंतो वा बहिं व) उपाश्रय के अंदर या बाहर (समणट्ठयाए) साधु के लिए (ठवियं) रखा गया, (हिंसासावज्जसंपउत्तं) हिंसा तथा सावद्यकर्म से युक्त (होज्ज) हो, तो (तंपिय) वह सब आहारादि पदार्थ भी (परिोत्तु) साधु के ग्रहण करने (न कप्पति) योग्य नहीं है। (अह पुणाइ) तो फिर (केरिसयं) कैसा आहारादि (कप्पति) साधु के ग्रहण करने योग्य है ? (जं तं) जो आहारादि (एक्कारस पिंडवायसुद्ध) आचारांग सूत्र के
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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