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________________ ७७८ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र में देवतुल्य) द्धहलाता है, उन राजाओं का चक्रवर्ती इन्द्र कहलाता है। इस दृष्टि से एक 'नृदेवेन्द्र'- चक्रवर्ती मिलकर कुल ३३ देवेन्द्र हुए। ___ भवनपतियों के २० देवेन्द्रों के नाम इस प्रकार हैं-(१) चमरेन्द्र, (२) बलेन्द्र, (३) धरणेन्द्र, (४) भूतानन्द, (५ वेणुदेव, (६) वेणुताल, (७) हरिकान्त, (८) हरिसह, (8) अग्निसिंह, (१०) अग्निमाणव, (११) पूर्ण, (१२) वशिष्ठ, (१३) जलकान्त, (१४) जलप्रभ, (१५) अमितगति, (१६) अमितवाहन (१७) वेलम्ब, (१८) प्रभंजन, (१६) घोष और (२०) महाघोष । ज्योतिष्क देवेन्द्र दो हैं—सूर्य और चन्द्र । वैमानिक देवेन्द्रों के १० नाम इस प्रकार हैं-१-शकेन्द्र, २-~-ईशानेन्द्र, ३- सानत्कुमार, ४---माहेन्द्र, ५ ब्रह्म, ६-लान्तक, ७-शुक्र, ८. सहस्रार, ६ प्राणत और १० - अच्युत । इस प्रकार एक बोल से लेकर तेतीस बोल' तक का वर्णन समाप्त हुआ। तैतीस बोलों की आराधना करने वाले श्रमण की उपलब्धि-ये तेतीस बोल साधु जीवन के प्राण हैं। इनकी आराधना-साधना जो श्रमण कर लेता है, वह अपने जीवन में किन-किन विशिष्ट गुणों की उपलब्धि कर लेता है—इसी बात का संकेत शास्त्रकार इन पंक्तियों द्वारा करते हैं—'विरतीपणिहीसु......"संकं कंखं निराकरेत्ता सद्दहते सासणं भगवतो अणियाणे अमूढमणवयणकायगुत्त ।' इन पंक्तियों का आशय यह है कि जो साधक अन्तरंग और बाह्यरूप में परिग्रह से सर्वथा निलिप्त, मुक्त और निरपेक्ष होना चाहता है, उसके लिए अत्यन्त आवश्यक है कि वह एक बोल . से लेकर ३३ बोलों तक में बताई हुई बातों में से ज्ञेय को जाने, हेय को त्यागे और उपादेय को जीवन में उतारे। इन तेतीस बोलों में से प्राणातिपात आदि जिन-जिन पदार्थों से विरत होना है। उन्हें हेय समझ कर उनकी विरति में विशिष्ट एकाग्रता प्राप्त करे, तथा दूसरी जिन-जिन बातों से विरत नहीं होना है उन्हें ज्ञेय या उपादेय समझ कर उनमें प्रवृत्त हो जाय, तथा इन और इस प्रकार के बहुत-से मोक्षसाधक स्थानों-बातों में, जो कि जिन भगवान् द्वारा प्रणीत समवायांगादि शास्त्रों में प्रतिपादित हैं, सत्य हैं, शाश्वत हैं - त्रिकालसिद्ध सिद्धान्त रूप हैं, तथा द्रव्य भाव रूप से अवस्थित हैं, उनमें शंका और कांक्षा (इहलौकिक पारलौकिक आदि से सम्बन्धित १-इन ३३ बोलों का निरूपण समवायांग सूत्र, स्थानांगसूत्र (स्थान ६ सूत्र ३६३), उत्तराध्ययन सूत्र (अध्ययन ३१) तथा श्रमणसूत्र में भी है । समवायांग सूत्र में इन पर विस्तृत विवेचन भी मिलता है। जिज्ञासुजन वहाँ से विस्तृत विवेचन अवगत करलें। -संपादक
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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