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दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह - संवरद्वार
फिर गुरु आदि को बताना । ( १५ ) भिक्षा में लाया हुआ आहार का कथन पहले दूसरे शिष्यादि के आगे करके बाद में गुरुजनों के आगे करना । ( १६ ) लाये हुये आहार के लिए पहले शिष्यादि को आमंत्रित करना, तत्पश्चात् बड़े साधुओं या गुरु को आमंत्रित करना । ( १७ ) भिक्षा में प्राप्त आहार लाकर पहले बड़े या वृद्ध साधुओं को पूछे बिना अपने प्रियपात्र साधुओं को दे देना । (१८) बड़ों के साथ में भोजन करते हुए खुद जल्दी-जल्दी बढ़िया चीजों पर हाथ साफ कर देना । ( ११ ) किसी प्रयोजनवश बड़ों के बुलाने पर उसका जवाब न देना । ( २० ) बड़ों के बुलाने पर आसन पर बैठे-बैठे ही उत्तर देना - हां, बोलिए क्या कहते हैं ? अथवा कार्य करने के आलस्य से बड़ों के पास ही न फटकना । (२१) बड़ों के द्वारा कोई बात पूछने पर उनके सामने अविनयपूर्वक बोलना या उटपटांग बड़बड़ाना । (२२) गुरुजन या बड़े साधु शिष्य या छोटे साधु से कहें - वत्स ! यह काम करो, तुम्हें लाभ होगा । तब अविनय-पूर्वक जवाब देना - आप ही इसे कर लीजिए, आपको लाभ हो जायगा । अथवा बड़े साधु कहें कि आर्य ! रुग्ण साधु की सेवा नहीं करते ? तब उत्तर देना कि रुग्ण की सेवा आप ही क्यों नहीं कर लेते ? ( २३ ) बड़ों के प्रति कठोर भाषा का प्रयोग करना । (२४) बड़े जिन-जिन शब्दों का प्रयोग करें, उनके सामने उन्ही - शब्दों को दोहरा कर प्रत्युत्तर देना, अथवा गुरु द्वारा धर्मशिक्षा देने पर अन्यमनस्क होकर बैठ जाना, उनकी बातों का समर्थन न करना । (२५) गुरुजनों के व्याख्यान
अविनयपूर्वक प्रश्न करना और गुरु द्वारा उसका जवाब देने पर कहना कि - "आपको याद ही नहीं है ।" (२६) बड़ों के व्याख्यान में उनकी भूल प्रगट करके सभा भंग करना या धर्मकथा की प्रवचनधारा को तोड़ देना । (२७) बड़े व्याख्यान दे रहे हों. उस समय अपने लिए हितकर बात को अहितकर समझ कर अरुचि दिखाना । ( २८ ) वड़ों के द्वारा व्याख्यान करते समय बीच में ही सभा में विक्षेप डाल देना कि अब तो भिक्षा का समय हो गया है ! कब तक कहे जाओगे ? इस प्रकार बोलकर सभा को क्षुब्ध कर देना (२९) गुरुजनों का व्याख्यान पूरा हुआ नहीं, उससे पहले ही अपनी दक्षता बताने के लिए स्वयं व्याख्यान शुरू कर देना । ( ३० ) गुरु की शय्या पर बैठ जाना । ( ३१ ) उनकी शय्या पर पैर लगाना या ठोकर मारना, (३२) बड़ों के आसन से ऊँचे आसन पर बैठना, खड़ा रहना या सोना । (३३) गुरुदेव के आसन के बराबर आसन पर खड़े होना, बैठना या सोना । इस प्रकार कुल ३३ आशातनाएँ हैं, जो अभिमानरूप अन्तरंग परिग्रह से जनित होती हैं, इसलिए इन्हें हेय समझ कर छोड़ना चाहिए ।
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सुरिंदा – देवों में ज्योतिष्क देवों के २
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३३ इन्द्र हैं । वे इस प्रकार हैं- भवनपति देवों के २० इन्द्र, वैमानिक देवों के १० इन्द्र, राजा नृदेव ( मनुष्यों