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________________ ७७४ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र सर्पमंत्र आदि के साधने के उपाय बताने वाला शास्त्र मंत्रानुयोग है। (२८) योगानुयोग - वशीकरण, मोहन, मारण, उच्चाटन आदि योगों का प्रतिपादन करने वाला शास्त्र योगानुयोग है। (२६) अन्यतीथिक प्रवृत्तानुयोग-कपिलादि अन्यतीथिकों द्वारा प्रवृत्त किया हुआ स्वसिद्धान्तानुरूप आचार-विचार का प्रकट करने वाला शास्त्र अन्यतीथिक-प्रवृत्तानुयोग है। मोहणिज्जे-महामोहनीय कर्मबन्धन के ३० स्थान (कारण) हैं। वे इस प्रकार हैं- (१) जल में डुबोकर त्रसजीवों को मारना। (२) हाथ आदि के द्वारा प्राणियों के मुंह आदि को ढक कर (श्वास रोक कर) मारना। (३) चमड़े की गीली रस्सी कस कर सिर पर बांध कर प्राणी को मारना (४) मस्तक पर मुद्गर आदि से प्रहार करके प्राणी को मारना (५) संसार समुद्र में डूबते हुए प्राणियों के उद्धार के लिए द्वीप के समान श्रेष्ठ मनुष्य को मारना। (६) शक्ति होते हुए भी दुष्ट परिणामवश रोगी की सेवा शुश्रूषा न करना। (७) तपस्वी को बलात् धर्म-भ्रष्ट करना। (८) दूसरों के सम्यग्दर्शन आदि मोक्षमार्ग के शुद्ध परिणामों को विपरीत परिणत करके अपकार करना । (8) जिनेन्द्र देवों की निन्दा करना। (१०) आचार्य उपाध्याय आदि का अवर्णवाद (निन्दा) करना। (११) ज्ञानदान आदि से उपकारी आचार्य आदि के उपकार को न मानना तथा उनका सम्मान आदि न करना । (१२) राजा के प्रयाण करने के दिन आदि का पुन-पुनः कथन करना । (१३) वशीकरण आदि का प्रयोग करना (१४) त्याग किये हुए भोग आदि की अभिलापा करना , (१५) बहुश्रु त न होने पर भी अपने को बहुश्रुत कहना । (१६) तपस्वी न होने पर भी खुद को तपस्वी नाम से प्रसिद्ध करना, (१७) बहुत से प्राणियों को बाड़े आदि में बंद करके आग जलाकर धुए से दम घोटकर मार डालना। (१८) अपने द्वारा किये गए दुष्कृत्य को दूसरे के सिर पर मढ़ना, (१६) विविध प्रकार से मायाजाल रचकर लोगों को ठगना । (२०) अशुभ परिणामवश सत्य बात को भी सभा में झूठी बताना । (२१) बार-बार लड़ाई छेड़ते रहना। (२२) विश्वास में लेकर दूसरे का धन हड़प जाना । (२३) विश्वास पैदा करके दूसरे की स्त्री को बहकाना । (२४) कुआरा (अविवाहित) न होने पर भी खुद को कुआरा कहना । (२५) ब्रह्मचारी न होने पर भी स्वयं को ब्रह्मचारी कहना । (२६) जिस व्यक्ति के द्वारा ऐश्वर्य प्राप्त किया है, उसी के माल पर हाथ साफ करने का मनोरथ करना । (२७) जिस व्यक्ति के द्वारा प्रसिद्धि प्राप्त की, उसी के काम में रोड़े अटकाना। (२८) राजा, सेनापति तथा राष्ट्रहितैषी आदि बहुजनमान्य नेता की हत्या करना। (२९) देव आदि को प्रत्यक्ष न देखने पर भी मायापूर्वक कहना कि 'मुझे तो अमुक देव दिखाई देते हैं।' (३.) देवों के प्रति अवज्ञा करते हुए कहना कि 'मैं ही देव हूं'। ये तीस मोहनीय
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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