SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 816
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवरद्वार ७७१ (३) अतिक्रमादि पूर्वक रात्रि भोजन करना, (४) आधाकर्म (५) सागारिक-शय्यातर का आहार ग्रहण करना, (६) औद्देशिक एवं क्रीतादि भोजन करना, (७) बार-बार प्रत्याख्यात (त्यागे हुए) अशनादि का ग्रहण करना । (८) ६-६ महीने के अन्दर एक गण को छोड़कर दूसरे गण में जाना । (६) महीने में ३ बार नाभि तक गहरे पानी में उतरना, (१०) महीने में ३ बार मायाचार करना (११) राजपिंड ग्रहण करना, (१२) आकुट्टि–इरादे से पृथ्वी कायादि प्राणियों की हिंसा करना (१३) आकुट्टिइरादे से मृषावाद बोलना, (१४) आकुट्टि से अदत्तादान ग्रहण करना (१५) ज्ञात रूप से सचित्त भूमि पर कायोत्सर्ग आदि करना । (१६) इरादापूर्वक गीली, रजसहित भूमि पर, सचित्त शिला या पत्थर या घुन लगे हुए काष्ठ पर सोना-उठना। (१७) अन्य किसी बीजादि प्राणी पर बैठना, उठना, सोना आदि । (१८) जानबूझ कर कन्दमूल आदि खाना। (१६) वर्ष में १० बार नाभिप्रमाण जल में उतरना (२०) एक साल में १० बार मायाचार करना (२१) पुनःपुन: सचित्त जल से भीगे हुए हाथ आदि से आहार आदि ग्रहण करना। ये सब दोष अन्तरंग परिग्रह के कारण होने से इन्हें अन्तरंग परिग्रह कहने में कोई आपत्ति नहीं। परिसहा-धर्म और मोक्ष के पथ से भ्रष्ट न होते हुए कर्मों की निर्जरा (क्षय) के लिए जिन्हें समभाव पूर्वक सहा जाय, उन्हें परिषह कहते हैं। वे २२ हैं(१) क्षुधापरिषह, (२) पिपासा परिषह, (३) शीत परिषह, (४) उष्ण परिषह, (५) दंशमशक परिषह, (६) अचेल परिपह, (७) अरति परिषह, (८) स्त्री परिषह, (६) चर्या परिषह, (१०) निषद्या परिषह, (११) शय्या परिषह, (१२) आक्रोश परिषह, (१३) वध परिषह, (१४) याचना परिषह, (१५) अलाभ परिषह, (१६) रोग परिषह, (१७) तृणस्पर्श परिषह, (१८) जल्ल (मल) परिषह, (१६) कारपुरस्कार परिषह, (२०) प्रज्ञा परिषह (२१) अज्ञान परिषह और (२२) अदर्शन परिषह । इनका अर्थ इनके नाम से ही स्पष्ट है। ये बाईस परिषह कर्मरूप अन्तरंग परिग्रह की निर्जरा के लिए होने से उपादेय हैं। सूयगडज्झयण सूत्रकृतांग सूत्र में कुल २३ अध्ययन हैं । प्रथम श्रुतस्कन्ध में १६ अध्ययन हैं, जिनके नामों का उल्लेख हम पहले कर चुके हैं । द्वितीय श्रुतस्कन्ध में ७ अध्ययन हैं; जिनके नाम इस प्रकार हैं-१-पुण्डरीक, २-क्रियास्थान ३–आहार परिज्ञा, ४--प्रत्याख्यान क्रिया, ५-अनगारश्रु त ६–आर्द्र ककुमार और ७-नालंद । देवा- देवों के मुख्यतया २४ भेद होते हैं- १० भवनवासी, ८ वाणव्यन्तर, ५ ज्योतिष्क और १ वैमानिक । परिग्रह त्याग रूप साधना की प्रेरणा देने वाले होने
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy