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दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह - संवरद्वार
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और (तिन्नि) तीन (दंडगारवा ) दण्ड और गौरव, (य) तथा ( तिन्नि गुत्तीओ) तीन गुप्तियां (य) और ( तिन्नि) तीन (विराहणाओ ) विराधनाएँ हैं, ( चत्तारि ) चार ( कसाया ) कषाय, ( तहाय) तथा ( चउरो झाण- सन्ना- विगहा ) चार ध्यान, चार संज्ञाएँ और क्रमशः चार विकथाएँ (हुति) होती हैं। (य) तथा (पंच) पांच ( समिति इंदिय महव्वयाइ) समितियां, पांच इन्द्रियां और पांच महाव्रत होते हैं, (य) तथा ( छज्जीवनिकाया) षट् जीवनिकाय और ( छच्च लेसाओ ) छह लेश्थाएँ होती हैं । ( सत्तभया) सात प्रकार के भय, (अट्ठ मया) आठ प्रकार के मद (य) और ( नव चेव बंभचेर वयगुत्तीओ) ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा के लिए नौ गुप्तियां हैं, (य) ( दसप्पकारे) दस प्रकार का ( समणधम्मे) श्रमणधर्म (य) और ( एकादस य उवास - काणं ) श्रावकों की ११ प्रतिमाएँ हैं, (बारस य भिक्खुपडिमा ) बारह प्रकार की भिक्षुप्रतिमाएं हैं, (य) तथा तेरह (किरियाठाणा) क्रिया के खास स्थान हैं, (भूयगामा) चौदह जीवसमूह हैं, ( परमाधम्मिया) पन्द्रह परमाधामिक असुरकुमार देवों के भेद हैं, ( गाहासोलसया) जिसमें गाथा नाम का १६ वां अध्ययन है, सूत्र कृतांग का .प्रथम श्रुतस्कन्ध ( असंजय अबंभ- णाय असमाहिठाणा) सत्रह प्रकार का असंयम, अठारह प्रकार का अब्रह्मचर्य, ज्ञातासूत्र के १६ अध्ययन और बीस असमाधिस्थान हैं, ( सबला) इक्कीस शबल, चारित्र को मलिन करने वाले कर्म, ( परिसहा ) वाईस परिषह ( सुयगडज्झयण देव भावण- उद्देश-गुण-पकप्प- पावसुत - मोह णिज्जे) सूत्रकृतांगसूत्र के २३ अध्ययन, चौबीस प्रकार के देव, पांच महाव्रत की २५ भावनाएँ, २६ प्रकार के उद्देशनकाल, २७ प्रकार के अनगारगुण, २८ प्रकार का आचारप्रकल्प हैं, २६ प्रकार के पापश्रुत, ३० प्रकार के मोहनीयकर्म के स्थान हैं, (य) तथा ( सिद्धातिगुणा ) सिद्धों के ३१ अतिगुण अर्थात् प्रधान गुण हैं, अथवा आदि से होने वाले गुण हैं (जोगसंगह ) ३२ योगसंग्रह (सुरिदा आदि ) ३२ देवेन्द्र हैं, तथा ( तित्तीसा आसाणा ) ३३ प्रकार की आशातना है, ( आदि) इनमें से प्रारम्भ की ( एकादियं ) एक आदि संख्या कही है, उस पर ( एकुत्तरियाए ) एक-एक आगे ( बढियाए) बढ़ाने पर (तिकाहिका तीसातो) तीन अधिक तीस यानी तैंतीस संख्या ( जाव उ भवे ) तक हो जाती है । उन स्थानों में (विरतिपणिहीसु) हिंसा आदि से निवृत्ति तथा विशिष्ट एकाग्रता में (य) तथा ( अविरतीसु) अविरतियों में (एवमादिसु बहुसु ) इन को आदि करके बहुत से ( जिण पसाहिएसु) जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कथित ( सासयभावेसु) नित्यरूप, अतएव ( अवट्ठिएसु) अवस्थित (अवितहेसु) सत्यभूतपदार्थों में ( संक) शंका - संदेह, और ( कंखं) आकांक्षा का ( निराकरेत्ता ) निराकरण करके