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दसवाँ अध्ययन : पंचम अपरिग्रह संवरद्वार
अन्तरंगपरिग्रह से विरति शास्त्रकार ने चतुर्थ संवरद्वार अब्रह्मचर्यविरमण रूप बताया था, किन्तु सर्वथा अब्रह्मचर्य विरमणरूप ब्रह्मचर्य का पालन परिग्रह-विरमण के होने पर ही हो सकता है। अतः अब क्रमप्राप्त परिग्रह-विरतिरूप अपरिग्रह नामक पंचमसंवर का निरूपण शास्त्रकार करते हैं। इस सम्बन्ध में अन्तरंग परिग्रह से निवृत्ति के लिए एक बोल से लेकर ३३ बोल तक प्रतिपादित विषय को अन्तरंगपरिग्रह मानकर उसी को मूलपाठ द्वारा सूचित करते हैं
मूलपाठ जंबू ! अपरिग्गहसंवुडे य समणे आरंभ-परिग्गहातो विरते, विरते कोह-माण-माया-लोभा-१-एगे असंजमे, २-दो चेव
राग़दोसा, (३) तिन्नि य दंड-गारवा य गुत्तीओ तिन्नि, तिन्नि य विराहणाओ, (४) चत्तारि कसाया झाण-सन्ना-विकहा तहा य हुंति चउरो, (५) पंच.य किरियाओ समिति-इंदिय-महन्वयाइं च, (६) छज्जीवनिकाया छच्च लेसाओ, (७) सत्त भया, (८) अट्ठ य मया, (६) नव चेव य बंभचेरवयगुत्ती, (१०) दसप्पकारे य समणधम्मे, (११) एक्कारस य उवासकाणं, (१२) बारस य भिक्खुपडिमा, (१३) किरियाठाणा य, (१४) भूयगामा, (१५) परमाधम्मिया, (१६) गाहासोलसया, (१७) असंजम - (१८) अबंभ - (१६) णाय - (२०) असमाहिठाणा, (२१) सबला, (२२) परिसहा, (२३) सुयगडज्झयण- (२४) देव- (२५) भावण- (२६) उद्देस(२७) गुण - (२८) पकप्प - (२६) पावसुत - (३०) मोहणिज्जे, (३१) सिद्धातिगुणा य, (३२) जोगसंगहे, (३३) तित्तीसा आसा