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________________ प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव और महापरिग्रह नरकायु के बंध का कारण है। इसलिए महाव्रती साधु तो आरम्भ से सर्वथा मुक्त होता है, जबकि गृहस्थ-श्रावक अल्पारम्भी होता है। परन्तु लक्ष्य और मनोरथ तो श्रावक का भी एक दिन उस आरम्भ से भी सर्वथा मुक्त होने का होता है। आखिर आरम्भ हिंसा का कारण तो है ही। १२-आयुकर्म का उपद्रव-भेदन-निष्ठापन-गालन और संवर्तक संक्षेप–आयुष्य कर्म को विष, शस्त्र आदि से उपद्रवित कर देना, (संकट में डाल देना) भिन्न कर देना (टुकड़े-टुकड़े करके अलग कर देना), समाप्त कर देना, गला देना तथा श्वासोच्छ्वास (प्राणवायु) का ह्रास कर देना–दम घोट देना भी प्राणवध है। इसलिए इन सबको प्राणवध के पारिवारिक बताए हैं, यह उचित ही है। कई लोग यहाँ शंका उठाते हैं, कि आयुष्य कर्म तो जितना बंधा हुआ है, उसे उतने समय तक भोगना ही पड़ेगा, यानी उतने काल तक वह उस शरीर में रहेगा ही, फिर आयुष्य के तोड़ने, समाप्त करने या क्षीण करने में कोई कैसे समर्थ हो सकता है ? ज्ञानीपुरुष इसका समाधान यों करते हैं, कि आयुष्य कर्म एक बार बंध जाने पर भी सोपक्रर्मी आयुष्य निमित्तविशेष से शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, निरुपकर्मी नहीं टूटता। निरुपक्रर्मी आयु नारकी, देव, चरमशरीरी या तीर्थंकर जैसे महापुरुषों की होती है। इसलिए जो आयुष्य बंधा हुआ है, उसे अकाल में ही किसी प्रकार के उपद्रव से संकट में डाल कर नष्ट कर देना, अकाल में ही आयुष्य को क्षीण कर देना, या तलवार आदि शस्त्र से न मार कर निर्वातस्थान में बंद करके दम घोट कर मार डालना, बिजली के करेंट आदि से खत्म कर देना,आयु कर्म का उपद्रव, भेदनगालन-निष्ठापन-संवर्तक-संक्षेप आदि है, और ये सब प्राणवध के ही अंगोपांग हैं, इसलिए प्राणवध के समानार्थक बतलाए गए हैं । संवर्तक-संक्षेपक का एक अर्थ सर्वबल, सामर्थ्य, शक्ति आदि का ह्रास कर देना—क्षीण कर देना भी किया गया है। किसी की ताकत को खत्म करने के लिए भूखे-प्यासे रखना, जहर देना, रोगी बना देना, कौडों वगैरह से मारपीट करना आदि उपाय बहुत से निर्दयी व्यक्ति अजमाते हैं । अतः ये सब हिंसा के ही प्रकार हैं। तीस संख्या की पूर्ति के लिए शास्त्रकार ने इन सब समानार्थक शब्दों को एकत्र करके सबका यह एक नाम रख दिया है। १३-मृत्यु-किसी को जान से मार डालना, जीवन से रहित कर देना या परलोक पहुंचा देना मृत्यु है । मृत्यु वैसे तो एक न एक दिन प्रत्येक प्राणी की होती ही है, परन्तु उस स्वाभाविक मृत्यु के अतिरिक्त किन्हीं हिंसाजनक साधनों से किसी प्राणी की मृत्यु में निमित्त बनने अथवा उसे मरणशरण कर देने, काल के मुंह में पहुंचा देने वाली मौत हिंसा का परिणाम होने से प्राणिवध की पर्यायवाची बनती है। इसलिए मृत्यु को भी प्राणिवध के समकक्ष बताया है। मौत के नाम से भी प्राणी
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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