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________________ ३४ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र ... ७-मारणा-मारपीट करना, लात-घूसे मारना, कौड़ों से, लाठी से, चाबुक से किसी पशु या मनुष्य पर प्रहार करना 'मारणा' है। अथवा किसी भी तरह अपनी असावधानी से जीवों का घात करना भी मारणा है। ८-वधना—किसी प्राणी के प्राणों को पीड़ा पहुंचाना वध है अथवा अपनी जिह्वालोलुपता वश या क्षणिक सुख के लिए बेचारे निरपराध प्राणियों का हनन करना, धर्म के नाम से या देवीदेवों की भक्ति के नाम पर पशुओं का बलिदान करना, अपने मौजशौक, वस्त्र या चमड़े की चीजों के लिए मूक पशुओं की हिंसा करना भी वध है । अपनी उदरपूर्ति के लिए निर्दोष अन्न-फल आदि पदार्थों को छोड़कर अपवित्र मांस, मत्स्य आदि का सेवन करने के लिए निर्दोष पशुओं का वध करना या वध को प्रोत्साहन देना भी वध है। -उपद्रवणा-वन में आग लगाकर या शौक के लिए अथवा कुतहलवश भैंसे, मुर्गे, सांड आदि को परस्पर लड़ाना उपद्रव है। ऐसे उपद्रव प्राणियों के लिए पीड़ा के कारण होते हैं, इसलिए ये प्राणिवध के समान ही हैं। अथवा कहीं आग लगाना, दंगा-फिसाद करना या पत्थरबाजी करना या आपस में लाठी, शस्त्र आदि से लड़ना इत्यादि सब उपद्रव हैं, ये भी हिंसा के भाई हैं। ६ ... १०-त्रिपातना या निपातना-किसी जीव के मन, वचन और काया का अतिपात-वियोग करना अथवा आयु, शरीर और प्राणों से वियुक्त—पृथक् कर. देना त्रिपातना है। अथवा मन,वचन, काया के द्वारा प्राणों को जीव से पृथक् कर देना निपातना है । मन, वचन, काया, इन्द्रिय आदि सब प्राण के ही प्रकार हैं, इसलिए निपातना प्राणवध की ही सहोदरी बहन है। . ११-आरम्भ-समारम्भ-मकान बनाना, खेती करना, कारखाना चलाना, उद्योग-धंधा करना, व्यापार करना या रसोई बनाना आदि छोटे-बड़े अनेक कार्यों में स्थावर जीवों की हिंसा होती ही है, कई बार त्रस जीवों की भी हिंसा होती है। इसे शास्त्रीय परिभाषा में आरम्भ कहते हैं, ऐसे किसी भी आरम्भ से होने वाला समारम्भ-जीवविघात आरम्भ-समारम्भ कहलाता है। आरम्भ-समारम्भ भी प्राणिवध का कारण होने से उसका पर्यायवाची बताया गया है । - कोई कह सकता है, कि आरम्भ-समारम्भ के बिना तो गृहस्थ जीवन में एक दिन भी चलना कठिन है, फिर गृहस्थ तो हिंसा से बिलकुल छूट नहीं सकता ? हाँ, यह ठीक है, कि आरम्भ के बिना गृहस्थ की गाड़ी नहीं चल सकती। लेकिन उसके लिए शास्त्रकारों ने उसकी सीमा बताई है। गृहस्थ से आरम्भजा हिंसा सर्वथा छूट नहीं सकती। परन्तु अल्प-आरम्भ से गृहस्थ अपना जीवन यापन करता है। वह महारम्भ (अनाप-सनाप आरम्भ या ऐसे आरम्भ के कार्यों का ठेका या व्यवसाय) नहीं कर सकता । तत्त्वार्थसूत्र में बताया है—'बह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः' महारम्भ
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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