________________
सम्पादकीय
जैन वाङमय में आगमसाहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसमें भी अंगसाहित्य का महत्त्व तो और भी अधिक है । अंग का अर्थ ही है वह मूल केन्द्र, जिसमें से उपांग आदि अन्य आगम साहित्य विकसित एवं पल्लवित हुआ है।
प्रश्न व्याकरणसूत्र अंगसूत्रों में दसवां महत्त्वपूर्ण अंग शास्त्र है। इसमें हिंसा आदि पांच आश्रवों तथा अहिंसा आदि पांच संवरों का इतना स्फुट एवं विशद वर्णन है, जिसमें साधक जीवन के मूलभूत प्रश्नों की सरलतम एवं सुन्दरतम व्याख्या प्रस्तुत की गई है । प्रमुख विद्वानों से लेकर साधारण जिज्ञासु तक भी प्रश्नव्याकरण के अध्ययन से अपने जीवन का यथार्थ लक्ष्यबोध प्राप्त कर सकते हैं।
मेरे परमश्रद्धय परमगुरु (बावागुरु) पं० श्री हेमचन्द्रजी महाराज एक महान् मनीषी विद्वान् सन्त हैं। अपने परमाराध्य गुरुदेव, जैन धर्म दिवाकर, जैनागम रत्नाकर श्रद्धय पूज्यपाद आचार्यदेव स्व. श्री आत्मारामजी म. के सानिध्य में आपने आगमसाहित्य का गंभीर अध्ययन किया है, साथ ही गुरुदेव के साहित्यनिर्माण कार्य में भी उल्लेखनीय योगदान दिया है। आपका संस्कृत प्राकृत साहित्य का पाण्डित्य अद्भुत है। आपने बहुत समय पहले प्रश्न व्याकरण सूत्र पर, स्व. आचार्य देव की शैली में ही 'सुबोधिनी' नामक एक बहुत सुन्दर एवं विस्तृत व्याख्या लिखी थी। मेरे श्रद्धय पूज्य गुरुदेव (श्री पद्मचन्द्र जी भण्डारी) की इच्छा थी कि वह महत्त्वपूर्ण कृति आधुनिक पद्धति से पुनः परिष्कृत होकर जिज्ञासु जनता के समक्ष आए, ताकि सर्वसाधारण जिज्ञासुजन उससे यथोचित लाभ उठा सकें ।
गुरुदेव की प्रेरणा से मैंने यत्किचित् सेवा करने का उपक्रम किया है। मैं क्या हूँ, कुछ भी नहीं हूं। फिर भी गुरुदेव के आशीर्वाद से कुछ कर पाया हूँ, इसी में मेरे मन को सन्तोष है। प्रस्तुत उपक्रम में मेरा अपना क्या है ? जो कुछ है, वह सब श्रद्ध य पूज्य प्रगुरु जी का ही है। श्री कृष्ण ने गिरिराज गोवर्धन उठाया, साथी ग्वाल बालों ने भी अपनी-अपनी लाठियां, अंगुलियाँ छुआ दीं। बस, ऐसा ही और इतना ही मेरा भी कुछ है, जिसे मैं अपना कह सकता हूँ।