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________________ नौवां अध्ययन : ब्रह्मचर्य-संवर ७५१ शास्त्रकार अपने अनुभव के आधार पर कुछ विकृतिकारक चीजों के नाम गिनाकर उनके प्रतिदिन अतिमात्रा में तथा अपथ्य रूप में सेवन करने से बचने का निर्देश किया है । दूध, दही, घी, नवनीत, तेल, गुड़ शक्कर, मिश्री, शहद, मांस, मद्य, या गरिष्ठ खाद्य पदार्थों को विकृति जनक समझकर जो दर्पकारक या मदकारक तामसिक खानपान हैं, उन्हें सेवन न करे, न प्रतिदिन ही सेवन करे, न दिन में अनेक बार सेवन करे, न अतिमात्रा में सेवन करे, न साग-दाल स्वादिष्ट हो तो अधिक मात्रा में सेवन करे। साधु का आहार संयमयात्रा के निर्वाह के लिए होना चाहिए, केवल भोजनभट्ट बनकर अंटसट खाने के लिए नहीं। संयमी जीवन जीने के लिए ही साधु को आहार करना है, न कि खाने के लिए ही जीना है। वह ऐसा तामसी या राजसी खानपान न करे, जिस से ब्रह्मचर्य पालन में भ्रान्ति हो जाए कि मैं अब ब्रह्मचर्य पालन करू या नहीं ? अथवा ब्रह्मचर्य के प्रति उपेक्षा हो जाए कि क्या रखा है ब्रह्मचर्य में ? रूखे-सूखे, नीरस, एकाकी जीवन में क्या आनन्द है ? स्त्री-बच्चोंसहित जीवन रसमय और आनन्दमय होता है, उसी में चहल-पहल होती है ! इस प्रकार कामोन्मादवश साधक उलटे चिन्तन के चक्कर में पड़कर अपने ब्रह्मचर्य धन को लुटा देता है। कई बार वह तामसिक एवं मादक भोजन के कारण कामोद्र कवश किसी सुन्दरी के पीछे पागल बना फिरता है अथवा ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट होने के साथसाथ वह साधु धर्म के प्रति भी अश्रद्धालु बन कर धर्मभ्रष्ट हो जाता है। अतः साधु को ऐसा चिन्तन करना चाहिए कि साधु को आहार तो केवल संयम के भार का निर्वाह करने के लिए करना है ? गाड़ी की धुरी में तेल देने के समान या घाव पर मरहम लगाने के समान परिमित मात्रा में ही करना है।' ___ इस प्रकार के चिन्तन से युक्त भावना के प्रकाश में सम्यक् प्रवृत्ति करने पर साधक का अन्तरात्मा ब्रह्मचर्य के संस्कारों से जगमगा उठता है। उसका अन्त: करण ब्रह्मचर्य रूप चन्द्र के प्रकाश में चकोर की तरह लीन हो जाता है, उसकी इन्द्रियाँ ब्रह्मचर्यविघातक विषयों की ओर नहीं दौड़तीं। इस प्रकार पांचों इन्द्रियों को तदनुकूल विषय-भोजन न मिलने पर जितेन्द्रिय बना हुआ साधु ब्रह्मचर्य में समाधिस्थ हो जाता है। कुछ शंका-कुछ समाधान—यहाँ शंका होती है कि मूलपाठ में 'ववगय · . मज्जमंस 'इन दो पदों को भी लिया है, जिनका सेवन साधुओं के लिए सर्वथा वर्जित १ इसी विषय की गाथा यह है, जिसका अर्थ ऊपर आ चुका है- . 'एवमभंगणलेवो सगडक्खणाण जत्तिओ होइ। इअ संजमभरवहणट्ठयाए साहूणमाहारो॥' -संपादक
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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