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________________ नौवां अध्ययन : ब्रह्मचर्य-संवर ७४६ पूर्वरतपूर्वक्रीड़ितविरति समिति भावना का प्रयोग-कई बार साधक के सामने न तो स्त्री होती है और न ही कोई कामोत्तेजक पदार्थ । वह मन में यों सोचता रहता है कि मैं ब्रह्मचर्य की बाह्य मर्यादाएँ पाल रहा हूं; कायिक रूप से ब्रह्मचर्य का खण्डन नहीं कर रहा हूँ, किन्तु उस अवस्था में भ्रान्तिवश या मोहवश वह स्त्री या कामोत्तेजक पदार्थों के विद्यमान न होते हुए भी अपनी पूर्व (गृहस्थ) अवस्था की कामक्रीड़ाओं एव कामसेवन की बातों का स्मरण करके मन को विकारी बना लेता है; कभी-कभी खेल तमाशे या नटों, भांडों, तमाश बीनों, गानेबजाने वालों, चित्रकारों, खेल तमाशे दिखाने वालों आदि के अश्लील दृश्य देखकर, अश्लील श्रव्य वस्तुओं का श्रवण करके तथा पूर्व दृष्ट या अनुभूत वस्तुओं का स्मरण करके मन को बहलाता है। परन्तु वह अश्लील मनोरंजन साधु के लिए बहुत मंहगा पड़ता है। उसकी वर्षों की की-कराई ब्रह्मचर्य साधना को वह गंदा मनोरंजन कुछ ही क्षणों में मटियामेट कर देता है; उसकी ब्रह्मचर्यनिष्ठा को उखाड़ फेंकता है, उसकी ब्रह्मचर्यसाधना के सुफल को भी चौपट कर देता है। इसी उद्देश्य से शास्त्रकार इस भावना के चिन्तनयुक्त प्रयोग की ओर दिशानिर्देश करते हैं - "पहले गृहस्थावस्था में अनुभूत कामक्रीड़ा, छूत आदि क्रीड़ा तथा श्वसुरकुल के साले-साली आदि से हुए परिचय तथा हास-परिहास आदि साधु को देखना, कहना या स्मरण करना हर्गिज उचित नहीं । इसी प्रकार पूर्वजीवन में नवविवाहित मिलन के समय, विवाह के समय, वसंतपंचमी आदि तिथियों, यज्ञों और उत्सवों के अवसर पर शृंगाररस की गृहस्वरूप सुन्दर वेशभूषा से सुसज्जित, हाव, भाव, अंगों के ललित न्यास और विलासपूर्ण गति से सुशोभित, अनुकूल प्रेमवाली प्रेमिकाओं के साथ जो शयन-सहवास अनुभव किया था, तथा ऋतु के अनुकूल सुख देने वाले सुगन्धित श्रेष्ठ फूल, सुगन्धित उत्तमचन्दन, खुशबूदार श्रेष्ठ चूर्ण, वास, धूप, सुखस्पर्श, कोमल वस्त्र, आभूषण आदि पूर्वानुभूत एवं भोग में वृद्धि करने वाले गुणों से युक्त स्त्रियों का तथा रमणीय बाजों और श्रुतिमधुर गानों से भरपूर नट, नर्तक, पहलवान, विदूषक, तैराक, रास लीला करने वाले, खेलतमाशा दिखाने वाले, शुभाशुभ बताने वाले, लंबे बांस पर खेल दिखाने बाले, सुरीले राग से गाने वाले गवैया, वादक, कथक्कड बाजीगर, मधुर स्वर के गीतों की आवाज-ये और ऐसी ही अश्लील मनोरंजक सामग्री प्रस्तुत करने वाले लोगों की क्रियाएं, जो तप, संयम और ब्रह्मचर्य का आंशिक एवं पूर्णरूप से भंग करने वाली हों, उन्हें पूर्ण ब्रह्मचर्य-साधक श्रमण को देखना, कहना और याद करना कथमपि उचित नहीं है। इस प्रकार की चिन्तन प्रक्रिया से युक्त भावना के प्रकाश में साधक का अन्तरात्मा ब्रह्मचर्य के संस्कारों से सुसंस्कृत बनेगी और तब उसका मन ब्रह्मचर्यनिष्ठा में ओत
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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