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________________ ७४८ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र एवं कामराग बढ़ाने वाली जितनी भी बातें हैं, उनका भी न उच्चारण करे, न दूसरे से सुने और न मन में चिन्तन करे। तभी ब्रह्मचर्य के बारे में साधु अडोल रह सकता है।। स्त्रीरूपनिरीक्षणत्यागसमिति भावना का प्रयोग-इसके बाद ब्रह्मचर्यघातक तत्त्वों का मोर्चा है—नारी के रूप से सम्बन्धित दर्शन, चिन्तन और कथन । ब्रह्मचारी साधक अपनी ब्रह्मचर्य प्रतिज्ञा, विद्वत्ता या स्त्रीसंसक्त स्थानत्याग की मर्यादापालन के भ्रम में रहता है कि मैं मर्यांदा में चल रहा हूँ; विद्वान और मर्यादा का पालन करता हूँ, फिर ब्रह्मचर्य-भ्रष्ट कैसे हो सकूगा ? पर कामवासना का उद्भव तो मन से होता है और मन की प्रेरणा से साधक नारी के रूप-सौन्दर्य, लावण्यवेशभूषा, यौवन, चालढाल, डीलडौल, शृंगार, आकृति, अंगप्रत्यंगों, अलंकारों, गुप्तांगों तथा अंगचेष्टाओं को कामविकार की दृष्टि देखने में लग जाता है; फिर विकृत मन से उन पर चिन्तन करता है और विकारी वाणी से उनका वर्णन करता है। अतः ब्रह्मचर्य घातक तत्त्व साधक को ऐसा पछाड़ देते हैं कि फिर ब्रह्मचर्य की भूमिका पर उसका उठना कठिन हो जाता है, वह एकदम निम्न भूमिका पर गिर जाता है । अत : अब्रह्मचर्य के इस प्रहार से बचने के लिए स्त्रियों की मधुर मुस्कराहट, विकारयुक्त वचन, हाथ-पैर आदि की चेष्टाएँ, भ्र चेष्टा-कटाक्षादि पूर्वक निरीक्षण, मस्तानी चाल, आँखों का विलास और क्रीड़ा तथा नारियों के कामोत्तेजक संभाषण, नृत्य, गीत, वीणादि वाद्यवादन, शरीर की लंबाई, मोटाई आदि संस्थान, रंग, हाथपैर व नेत्र का लावण्य, रूप, यौवन, स्तन, अधर, वस्त्र, अलंकार, शृगार प्रसाधन और गुप्तांग आदि ये और इसी प्रकार के अन्य स्त्री सम्बन्धी कामोत्तेजक एवं पापकर्मवर्द्धक बातें; जो कि तप, संयम और ब्रह्मचर्य का नाश और पतन करने वाली हों, उन्हें ब्रह्मचर्य का पूर्ण आराधक साधु आँखों से न तो देखने की इच्छा करे, न मन से उनका चिन्तन करने की अभिलाषा करे और न ही वाणी से उनका वर्णन करने की कामना करे। मतलब यह है कि कामविकार पैदा करने वाली जितनी भी चीजें हैं, उनके दर्शन, चिन्तन और वर्णन से ब्रह्मचारी साधक सर्वथा बचे। इस प्रकार की भावना के चिन्तन और प्रयोग से साधक की अन्तरात्मा में ब्रह्मचर्य के सुदृढ़ संस्कार जम जायेंगे और उसका मन ब्रह्मचर्य में संलग्न हो जायगा और तब वह ब्रह्मचर्य का पूर्ण सुरक्षक बनेगा। १- 'हावो मुखविकारः स्यात, भावश् चित्तसमुद्भवः । विलासो नेत्रजो शेयोः, विभम्रो भ्र युगान्तयोः । अर्थ-'हाव मुखविकार होता है, भाव चित्त से उत्पन्न होता है, विलास नेत्रजन्य विकार है और विभ्रम दोनों भौंहों से होता है।' -संपादक
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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