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________________ ७४४ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र गरिष्ठ स्वादिष्ट रसीले आहार का त्याग करने में सम्यक् प्रवृत्ति (समिति) करने से ब्रह्मचारी का अन्तरात्मा ब्रह्मचर्य के सुसंस्कारों से वासित हो जाता है। उसका अन्तःकरण ब्रह्मचर्य में रम जाता है, उसकी इन्द्रियाँ विषयों में आसक्तिपूर्वक प्रवृत्त नहीं होती। वह जितेन्द्रिय साधु ब्रह्मचर्य को पूर्णतया सुरक्षित कर लेता है। इस प्रकार इन पांचों ही कारणों-ब्रह्मचर्य रक्षण के उपायों से मन, वचन और काया चारों ओर से सुरक्षित हो जाने से ब्रह्मचर्य संवर का यह द्वार भलीभांति रक्षित हो जाता है, दिल-दिमाग में अच्छी तरह स्थापित हो जाता है । धृतिमान और बुद्धिमान साधू को यह चिन्तनयुक्त प्रयोग जीवन के अन्त तक प्रतिदिन करना चाहिए जो आश्रवरहित है, दोषरहित है, कम बन्ध के स्रोत से रहित है, संक्लिष्ट परिणामों से रहित है, शुद्ध है, सर्वतीर्थकरों ने इसकी अनुज्ञा दी है। इस प्रकार चौथा संवर द्वार उचितकाल पर स्वीकार किया हुआ, पालन किया गया, अतिचाररहित आचरण किया गया, पूर्ण रूप से पालन किया गया, अन्य भव्यजीवों के लिए उपदिष्ट है, और भगवान् की आज्ञानुसार आराधित है। इस प्रकार ज्ञातवंश में उत्पन्न मुनि अर्थात् भगवान् महावीर ने इस चतुर्थ संवरद्वार का सामान्य रूप से प्रतिपादन किया है, विशेष रूप से इस का निरूपण किया है, प्रमाणों से सिद्ध किया है, प्रतिष्ठापित किया है, भव्य जीवों को इसका उपदेश दिया है, ऐसा मंगलरूप एवं सिद्धों का उत्तमशासन रूप यह चतुर्थ ब्रह्मचर्य संवर द्वार समाप्त हुआ। ऐसा मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हूँ। व्याख्या पूर्व सूत्रपाठ में जिस ब्रह्मचर्य की इतनी गौरव गाथाएं शास्त्रकार ने गाई थीं, उस महामूल्यवान, अनेक तपस्याओं से प्राप्त ब्रह्मचर्यरत्न की सुरक्षा के लिए साधारणरूप से उपाय भी बताए थे, किन्तु ये उपाय तब तक ही कृतकार्य होते हैं, जब तक साधक के सामने प्रतिकूल वातावरण न हो । वातावरण भी तभी बनता है, जब ब्रह्मचर्य के सुसंस्कार इतने मजबूत हों कि रोम-रोम में वे रम जांय, रग-रग में प्रविष्ट हो जाय, साधक के जीवन का कण-कण ब्रह्मचर्य के संस्कारों से ओतप्रोत हो जाय । इसी उद्देश्य से शास्त्रकार ने अब्रह्मचर्य के विविध स्थानों से साधक की आत्मा को बचाने तथा ब्रह्मचर्यपालन के संस्कारों को बद्धमूल करने हेतु
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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