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________________ नौवां अध्ययन : ब्रह्मचर्य-संवर ७४३ परिधान, विलासपूर्वक मस्तानी चाल से सुशोभित, अनुकूल प्रेमवाली प्रेमिकाओं के साथ ऋतु के अनुकूल सुखद सुन्दर फूल, महकते उत्तम चन्दन, महकते हुए उत्तम चूर्ण (पाउडर), इत्र आदि की मस्त सुगन्ध, धूप, सुखस्पर्श, मुलायम कपड़े, इन सब कामभोग- वद्ध'क गुणों से युक्त जिन शयनसम्पर्कों का सुखानुभव गृहस्थावस्था में किया था, उन्हें न देखे, न उनका वर्णन करे, और न ही मन में उनका चिन्तन करे । तथा रमणीय बाजों और गायनों के सहित नट का तमाशा करने वालों, नृत्य करने वालों, रस्सी पर चढ़ कर खेल करने वालों, कुश्ती करने वाले पहलवानों, मुष्टियुद्ध करने वाले मल्लों, कथा करने वाले कथकों, ऊपर से पानी में कूदने वालों, रासलीला करने वालों, शुभाशुभ फल बताने वालों, लंबे बांस पर चढ़ कर तमाशा दिखाने वालों, चित्रपट हाथ में लेकर भिक्षा मांगने वालों (डाकौत आदि), तूण नामक बाजा बजाने वालों तथा बाजीगरों की विशेष क्रिया तथा मधुर स्वर से गाने वालों के सुरीले स्वर तथा इसी प्रकार की अन्य विविध क्रियाएँ, जिनसे तप, संयम और ब्रह्मचर्य का सर्वथा या आंशिक रूप से नाश होता है, इन सबको ब्रह्मचारी साधु न आंखों से देखे, न वचन से उनके बारे में चर्चा करे, और न ही मन से उन पर चिन्तन करे । इस प्रकार पहले आश्रम ( गृहस्थ अवस्था ) की कामक्रीड़ा या द्यूतादिक्रीड़ा का दर्शन, उच्चारण व स्मरण के त्याग में सम्यक् प्रवृत्ति करने से ब्रह्मचारी की अन्तरात्मा ब्रह्मचर्य के संस्कारों से ओतप्रोत हो जाती है । उसका मन ब्रह्मचर्य में ही निमग्न हो जाता है, उस की इन्द्रियाँ विषयों से विमुख हो जाती हैं | वह जितेन्द्रिय साधु ही ब्रह्मचर्य का पूर्ण सुरक्षक बनता है । पांचवीं प्रणीत-आहारत्याग समिति भावना इस प्रकार है गरिष्ठ, स्वादिष्ट और स्निग्ध आहार को छोड़ने वाला तथा दूध, दही, घी, मक्खन, तेल, गुड़, शक्कर, मिश्री, मधु-शहद, मद्य, मांस आदि खाद्य - विकृतियों से रहित आहार करने वाला संयमी सुसाधू इन्द्रियदर्प-कारक पदार्थ न खाए, न दिन में कई बार खाए, न प्रतिदिन भोजन करे, न ही दाल - साग अधिक खाए, न बहुत ठूंस-ठूंसकर ही खाए । उतना ही और वैसा ही हितकर और परिमित भोजन करे, जिससे वह भोजन उस ब्रह्मचारी साधू की संयम यात्रा के लिए पर्याप्त निर्वाहक हो । उस आहार से मन में उद्विग्नता न पैदा हो, न ब्रह्मचर्य का सर्वथा भंग हो और न ही से भ्रष्ट हो । इस प्रकार धर्म
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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