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नौवां अध्ययन : ब्रह्मचर्य - संवर
चाहिए (व्व) अथवा (हाससिंगारलोइयकहा ) हास्यरस और शृंगाररस प्रधान लौकिक कथा ( a ) तथा ( मोहजणणी) मोह पैदा करने वाली ( आवाह - विवाह कहा ) नवविवाहित वर-वधू को बुलाने की या विवाह को कथा ( अवि ) भी ( न ) नहीं कहनी चाहिए (वा) अथवा ( इत्थीणं) स्त्रियों की ( सुभग दुभगकहा) सुन्दरता और कुरूपता से संबन्धित कथा अथवा सुहागिन होगी या विधवा ? इस प्रकार की या भाग्यशालिनी होगी या अभागिनी ? इससे सम्बन्धित बात भी (च) और (चउसट्ठी महिलागुणान) महिलाओं के आलिंगन आदि ८ कर्मों के प्रत्येक के ८-८ भेद होने से कुल ६४ गुणों का, अथवा गीत, नृत्य औचित्य आदि महिलाओं के ६४ गुणों का, या वात्स्यायनकामशास्त्र आदि में प्रसिद्ध आसनादि ६४ भेदों का वर्णन भी नहीं करना चाहिए | ( a ) अथवा ( इत्थियाणं) स्त्रियों से सम्बन्धित ( वन्न देस - जाति-कुलरूव-नाम- नेवत्थपरिजण कहा वि) वर्ण, देश, जाति, कुल, रूप, नाम, नेपथ्य - पौशाक और परिवार की कथा भी (न) नहीं करनी चाहिए। (य) तथा ( एवमादियाओ) इसी प्रकार की ( अन्नावि) और भी ( सिंगारकलुणाओ ) शृंगाररस द्वारा करुणा पैदा करने वाली (तवसंजम बंभचेरघातोवघातियाओ ) तप, संयम, और ब्रह्मचर्य का आंशिक रूप से तथा पूर्णरूप से घात करने वाली ( कहाओ) कथाएँ (बंभचेरं) ब्रह्मचर्य का (अणुचरमाणे) आचरण करने वाले साधु को ( न कहेयव्वा) नहीं कहनी चाहिए तथा ( न सुणेयश्वा) न दूसरे से सुननी चाहिए और ( न चितेयव्वा ) न ही मन में उनका चिन्तन करना चाहिए। ( एवं ) इस प्रकार पूर्वोक्त रीति से ( इत्थीकहविरतिसमितिजोगेणं) स्त्री कथा से विरक्तिरूप समिति का प्रयोग आचरण करने से (अंतरप्पा ) साधु का अन्तरात्मा (भावितो) ब्रह्मचर्य के संस्कार से सुवासित (भवति) हो जाता है; ( आरतमर्णाविरयगामधम्मे) उसका हृदय ब्रह्मचर्य में मग्न हो जाता है और उसकी इन्द्रियाँ विषयों से पराङ्मुख हो जाती हैं; ( जितेंबिए) ऐसा इन्द्रियविजेता साधु ही (बंभचेरगुत्त) ब्रह्मचर्य का पूर्ण रक्षक बन जाता है । ( ततीयं ) तीसरी स्त्रीरूपविरतिसमिति भावना है, वह इस प्रकार है - ( नारीणं) स्त्रियों के (हसितभणितं ) मधुर हास्य तथा विकारयुक्त कथन, (चेट्ठिय-विपेक्खित- गइ-विलास-कोलियं ) हाथ आदि की चेष्टाएँ - लटके, कटाक्ष आदि या भौहों की चेष्टा करके निरीक्षण, गति - चालढाल, हावभावाधि रूप विलास और कामोत्तेजक क्रीड़ा, (य) तथा ( विब्बो - इय-नट्ट - गीत - वादिय- सरीरसंठाण. वन्न कर-चरण- नयण लावन्न रूव-जोग्वण पयोहराहरवत्थालंकारभूसणाणि) कामोत्पादक संभाषण, नाट्य, नृत्य, गीत, वीणादिवादन तथा मोटी,
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