SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 776
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नौवां अध्ययन : ब्रह्मचर्य-संवर ७३१ को आहार पानी देगा, शरीर शुद्ध भी करेगा, इन्द्रियों से अलग-अलग काम भी लेगा; लेकिन इन सब प्रवृत्तियों को अनासक्त भाव से करने के कारण ये सब प्रवृत्तियाँ ब्रह्मचर्यपोषक ही होंगी, ब्रह्मचर्य विघातक नहीं। जब उसका जीवन सहजभाव से आत्मरमणता या आत्मोपासना की ओर झुक जायगा, तब उसे कहाँ फुरसत मिलेगी, शरीर-शुश्रूषा के बारे में इतस्ततः सोचने की ? तब उसे कहाँ समय मिलेगा शरीर के परिमंडन करने का या अन्य कामोत्तेजक बातें सोचने का ? जब वह षट्काय (प्राणिमात्र) का माता-पिता बनकर विश्व की समस्त आत्माओं की सेवा में, उनका जीवन निर्माण करने-कराने में अपनी आत्मसाधना करते हुए अहर्निश लगा रहेगा; तब कहाँ उसके मन को विषयवासनाओं की ओर दौड़ने का अवकाश मिलेगा ? ब्रह्मचर्य पालन में स्थिर होने के लिए इसी दृष्टि से शास्त्रकार ब्रह्मचर्य का निर्देश करते हैं - 'भावेयव्वो भवइ य अंतर पा इमेहिं तवनियमसीलजोगेहि निच्चकालं .. .. अण्हाणक... ... जहा से थिरतरकं होइ बंभचेरं ।' सूत्रपाठ की इन सब पंक्तियों का अर्थ भी पहले स्पष्ट किया जा चुका है। यहाँ ब्रह्मचर्यपोषक जिन बातों की ओर शास्त्रकार ने निर्देश किया है, उनमें की कुछ बातें मानसिक ब्रह्मचर्य से सम्बन्धित हैं, कुछ में आत्मा की उपासना को छोड़ कर शरीरशुश्रूषा के निषेध का संकेत है । जैसे-मान-अपमान या लाभालाभ, सुखदुःख आदि मन से उत्पन्न होने वाली बातें हैं । कुछ लोग कहते हैं कि आत्मा को मान-अपमान, लाभ-अलाभ आदि कुछ भी नहीं होता । यह तो शरीर का धर्म है । परन्तु यह गलत है । राग या आसक्ति के वशीभूत होकर ही किसी दूसरे के शरीर या अवयव पर कामकुदृष्टि या कामचिन्तना होती है। जब साधक आत्मा के निजी गुणों, परमात्मा (सिद्ध और अर्हन्त, के गुणों का चिन्तन करेगा; शरीर के प्रति आसक्ति, मोह, वासना आदि की दृष्टि छोड़ कर शरीर को सिर्फ संयम पालन में सहायक कारण समझेगा, तब इन सब बातों की ओर न तो उसका मन जायेगा, न इन्द्रियां और शरीर जायेंगे और न ही वचनादि अन्य साधन ही जाएंगे ! किन्तु साधक के संस्कार में यह सब तभी रमेगा, जब वह तपस्या, नियम, शील और मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों के औचित्य पर ब्रह्मचर्य को केन्द्र में रख कर चिन्तन-मनन करेगा, इन पवित्रभावों में ओतप्रोत हो जायगा। तभी उसका ब्रह्मचर्य अत्यन्त स्थिर होगा, उसके संस्कार सुदृढ़ हो जाएंगे। -ब्रह्मचर्य रक्षा के लिए ५ भावनाएँ पूर्वोक्त सूत्रपाठ में शास्त्रकार ने ब्रह्मचर्य के माहात्म्य, गौरव, स्वरूप, तथा ब्रह्मचर्य पालन के बारे में सावधानी एवं सुरक्षा के बारे में विशद निरूपण किया है । अब इस सूत्रपाठ में ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए दूसरे पहल से पाँच भावनाओं का निरूपण शास्त्रकार करते हैं ।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy