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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र कषाय आदि चोरों लुटेरों से रक्षा कर सकेगा। जब भी स्वादिष्ट तथा गरिष्ठ पदार्थों के स्वाद के चक्कर में मन या इन्द्रियाँ भटकने लगेंगी, वह तुरन्त उपवास आदि तप से उन्हें रोकेगा । या प्रतिसंलीनता तप से इन्द्रियों का संगोलन करेगा। बढ़ती हुई इच्छाओं के कारण अब्रह्म (आत्मबाह्य भाव) में भटकती हुई आत्मा को वैयावृत्य, कायोत्सर्ग और व्युत्सर्ग तथा ध्यान आदि के द्वारा रोकेगा। इस प्रकार तप के द्वारा ब्रह्मचर्यरूपी धन की सुरक्षा हो सकेगी। फिर तप का दूसरा साथी संयम है, जो इन्द्रियों और मन को विषयों के बीहड़ में भटकने से रोकेगा। साधक को ब्रह्मचर्य के अतिरिक्त महाव्रतों से पहिले ब्रह्मचर्य की सुरक्षा पर ध्यान देना है। जहाँ एक ओर ब्रह्मचर्य ध्वस्त हो रहा हो, परन्तु दूसरी ओर अहिंसा, अस्तेय आदि की रक्षा हो रही हो, वहाँ सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य की सुरक्षा अत्यन्त आवश्यक होगी । इसका मतलब यह नहीं कि शेष महाव्रतों के प्रति उपेक्षा की जाय, परन्तु शास्त्रकार का आशय यह है कि ब्रह्मचर्य निरपवाद होने के कारण उसकी रक्षा अनिवार्य है । ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए पांच समितियों और तीन गुप्तियों का पालन अत्यावश्यक है । ईर्यासिमिति, भाषा समिति, एषणा समिति,आदानभांडमात्रनिक्षेपणासमिति,उच्चारप्रस्रवणखेलसिंघाणपरिष्ठानिकासमितिये पाँच समितियाँ हैं । ये साधक को अपने जीवन में शुद्ध सम्यक् प्रवृत्ति करने के लिए . सहायक हैं तथा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति, ये तीन गुप्तियाँ हैं, जो मन, वचन, काया को संयम से विपरीत प्रवृत्ति करने से रोकने में सहायक हैं । अथवा पाँच समितियाँ और विविक्त शय्यासन आदि ६ ब्रह्मचर्य गुप्तियाँ ब्रह्मचर्य की सुरक्षक होती हैं । ये ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए बहुत ही आवश्यक हैं। इसके अलावा उत्तम ध्यानरूपी कपाट भी ब्रह्मचर्य रत्न की रक्षा के लिए उत्तम उपाय है। इसका आशय यह है कि घर में रखे गए द्रव्य की रक्षा के लिए जैसे उस पर कपाट लगाना आवश्यक होता है, वैसे ही आत्मा के गृह में रहे हुए ब्रह्मचर्य धन की रक्षा के लिए श्रेष्ठ ध्यान-धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान की आवश्यकता है । जिस जगह चोरों का भय होता है, वहाँ सुदृढ़ किला बनाकर लोग उसमें रखे हुए रत्नादि की सुरक्षा करते हैं। किन्तु उस किले के दरवाजे पर किवाड़ न लगे हों तो चोर किसी भी समय अन्दर घुस कर चिरसंचित धन का हरण कर लेंगे । इसी प्रकार यहाँ भी आत्मा ने ब्रह्मचर्यरूपी रत्न का बहुत प्रयत्न से संचय किया है, उसके लिए मानवजीवन रूपी दुर्ग बनाया है, परन्तु केवल दुर्ग बनाने से ही ब्रह्मचर्य रत्न की रक्षा नहीं हो जायगी। अन्दर में रहे हुए ब्रह्मचर्य रत्न की सुरक्षा के लिए मनरूपी दरवाजे पर किवाड़ का होना अत्यावश्यक है, इसीलिए शास्त्रकार ने जीवनदुर्ग में रख हुए ब्रह्मचर्य रत्न की भली भाँति रक्षा के हेतु मनरूप द्वार पर उत्तम ध्यानरूपी कपाट लगाने का निर्देश किया है। चूंकि कामरूपी चोर मनोद्वार से ही होकर आता है।