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आठवां अध्ययन : अचौर्य-संवर
६६५ महाव्रत उज्ज्वल रखते हुए ही करनी है। साधु को ठहरने के लिए देवमंदिर आदि कई स्थान शास्त्रकार ने गिनाए हैं । अगर साधु अपने निमित्त से ठहरने के लिए स्थान बनवाएगा तो उसके टूटने-फूटने पर मरम्मत की चिन्ता करनी पड़ेगी, जो उस मकान में रहेंगे, उनके साथ किसी बात पर झगड़ा भी होने की संभावना है। इस कारण शास्त्रकार ने अपरिग्रही साधु के लिए गृहस्थ के द्वारा बनाए गए मकान में ठहरने का विधान है। तथा उस मकान से सम्बन्धित अन्य चिन्ताएँ साधु को नहीं करनी पड़ेंगी । वह ठीक तरह अपनी महाव्रत साधना कर सकेगा। साधु का अपना मकान न होने पर साधु को किसी जगह ठहरने के स्थान की दिक्कत पड़ सकती है, लोग मकान देने से कदाचित् आनाकानी कर सकते हैं,परन्तु गर्मियों में साधु पेड़ के नीचे भी या बाग-बगीचे या जंगल में कहीं भी आसानी से ठहर सकता है, सर्दियों में थोड़ा कष्ट पड़ सकता है, परन्तु अपने निमित्त से या अपना मकान बन जाने पर उसे जो रातदिन चिन्ता होगी, खटपट करनी पड़ेगी या मकान के खराब हो जाने पर मरम्मत वगैरह का प्रपंच करना पड़ेगा, ये सब कष्ट तो सर्दीगर्मी के कष्टों से भी भयंकर होंगे । अतः सब ओर से नापतौल करने के बाद साधु को मन में दृढ़ निश्चय कर लेना चाहिए कि जैसे सांप खुद बिल नहीं बनाता, वह चूहों आदि के द्वारा बनाए हुए बिल में ही घुस जाता है, वैसे ही साधु अपने लिए खुद मकान नहीं बनवाकर ग हस्थों द्वारा अपने लिए बनाए हुए किसी प्रासुक स्थान में ही ठहरेगा । इस प्रकार के चिन्तन,मनन और दृढ़ निश्चय से मन को दृढ़ संस्कारी बनाकर साधु अचौर्यव्रत का पूर्ण पालन कर सकेगा।
अनुज्ञात संस्तारक भावना का चिन्तन और प्रयोग-साधु अपने बिछौने में रुई तो भरता नहीं, वह घास-फूस आदि भरता है । परन्तु घासफूस का आज तो कुछ मूल्य है, लेकिन उस जमाने में क्या मूल्य था ? कोई भी गृहस्थ कहीं से भी घास, फूस उठाकर इकट्ठा कर सकता था। अतः साधु कहीं अपने तीसरे महाव्रत को मन से ओझल करके यह सोचने लगे कि घास फूस तो जंगल आदि में यों ही खड़ा रहता है, उसे कोई पूछता नहीं है। अतः मैं इस सूखे घास को जंगल आदि में से बिछौने के लिए ले आऊं तो क्या हर्ज है ? किन्तु वह यहाँ भूल जाता है कि साधु के लिए 'सव्वं से जाइयं होइ' सभी चीजें याचना करके ही प्राप्त होती हैं, इस दृष्टि से घास आदि भी किसी नागरिक की मालिकी का नहीं है, तो भी वह उस राजा या सरकार का है, जिसकी यह वनभूमि है । इसलिए जरूरत पड़ने पर अपने ग्रहण करने योग्य सूखी घास, सूखी दूव आदि उसके स्वामी से या सरकार या शासक से मांगकर या उसकी अनुमति लेकर उस चीज का ग्रहण करे। जिस उपाश्रय (स्थान) में साधु अभी रह रहा है वहाँ साधु को अपने योग्य पड़ी हुई किसी चीज की आवश्यकता हो तो प्रतिदिन या उसदिन उसके स्वामी से अनुमति लेकर उसे ले। इसी बात को