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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र है, और चाहता है अपने विकास और चारित्रपालन में बड़ों का प्रेमपूर्वक सहयोग । मन की इस आवश्यकता-विनयव्यवहार की पारस्परिक पूर्ति जब नहीं होती तो साधु पराधिकारहरण करने के कारण अपने तृतीय महाव्रत से भ्रष्ट हो जाता है । अतः इसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु एवं तृतीय महाव्रत की रक्षा करने हेतु पांचवीं सार्मिक विनयकरणभावना नियत की गई है।
निष्कर्ष यह है कि साधु जीवन की शरीर और मन से सम्बन्धित इन पूर्वोक्त पांचों प्रकार की मुख्य आवश्यकताओं की पूर्ति करके अचौर्य महाव्रत की सुरक्षा को प्रेरणा देने वाली एवं संस्कारित करने वाली पांचों भावनाएँ हैं । यही इन भावनाओं की उपयोगिता और उपादेयता है । वे पांच भावनाएं इस प्रकार हैं-(१) विविक्तवासवसतिसमितिभावना (२) अनुज्ञातसंस्तारकग्रहणरूप अवग्रह समिति भावना (३) शय्यापरिकर्मवर्जनारूप शय्यासमिति भावना (४) अनुज्ञात भक्तादिभोजनलक्षण साधारणपिंडपात्रलाभ समिति भावना, और (५) सार्मिक विनयकरण भावना ।
यद्यपि इनके सम्बन्ध में जितना मूलपाठ है, उसका अर्थ हम पहले स्पष्ट कर आए हैं। फिर भी कुछ स्थलों पर विश्लेषण करना और शास्त्रकार का आशय खोलना बहुत जरूरी है, यह समझ कर संक्षिप्त विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं
विविक्तवासवसतिसमितिभावना का चिन्तन और प्रयोग-साधु के लिए अहिंसा की दृष्टि से वह स्थान निवासयोग्य नहीं है, जो उसके निमित्त या उसकी प्रेरणा से बना हो, जो उसके लिए खरीदा गया हो, जिसमें अन्दर-बाहर मकान को ठीक कराने के लिए किसी प्रकार का आरम्भ-समारम्भ होता हो, या जहाँ स्त्री, पशु, नपुसक रात्रि को उसी कक्ष में निवास करते हों,जहाँ साधु रहता हो। इसके विपरीत जो गृहस्थ ने अपने लिए बनाया हो,त्रसस्थावरजीवों से असंसक्त हो,प्रासुक-जीवजन्तु रहित हो,विविक्त, एकान्त हो, वही स्थान साधु के योग्य है । शास्त्र द्वारा निषिद्ध उपाश्रय वही है, जिसके लिए शास्त्रकारने मूलपाठ में संकेत किया है-'आहाकम्मबहुले..."संजयाण अट्ठा वज्जेयव्वो सुत्तपडिकुटुं । इसका अर्थ पहले स्पष्ट कर चुके हैं । इस भावना को रखने का तात्पर्य यह है कि अपने ठहरने के लिए स्थान की आवश्यकता की पूर्ति के लिए साधु को ऐसा चिन्तन करना चाहिए— "जब इतने सारे बने-बनाए मकान पड़े हैं तो नये मकान बनवाने या स्वयं बनाने और उसकी चिन्ता में पड़कर क्यों मैं अपना संयम खोऊ । और मकान बनाने में छही काया के जीवों की हिंसा होने की संभावना है । तब अहिंसा महावत की विराधना होगी। साथ ही अपनी प्रेरणा से कोई स्थान बन जाने पर उस स्थान में उस साधु की ममता चिपक जाने की भी और दूसरे साधुओं को उसमें ठहराने के लिए आनाकानी की भी संभावना है। यह पराधिकारहरणरूप चोरी होगी तथा ये दोनों बातें भगवदाज्ञा के विरुद्ध होने से चोरी में शुमार हैं। इसलिए निवास के लिए स्थान की आवश्यकता की पूर्ति साधु को अपना तृतीय