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________________ प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव २६ (वहणा) वध करना, (उद्दवणा) उपद्रव करना, (तिवायणा य) मन, वचन और काया इन तीनों द्वारा प्राणों का अतिपात-पृथक् करना, (आरंभ-समारंभो) आरम्भ से जीवों का विघात करना, (आउयकम्मस्सुवद्दवो भेयनिट्ठवणगालणा य संवट्टगसंखेवो) आयुष्य कर्म का विच्छेद करना, आयु का भेदन करना, आयुष्य की समाप्ति करना या गला देना तथा संवर्तक (प्राणवायु-श्वासोच्छ्वास) का संक्षेप-हास कर देना-दम घोट देना, (मच्चू) मृत्यु, (असंजमो) असंयम, (कडगमद्दणं) सेना से जीवों का मर्दन करना, कुचल डालना, (वोरमणं) प्राणों से जीव का पृथक् करना, (परभवसंकामकारओ) जीव को परभव (दूसरे जन्म) में संक्रमण-गमन कराने वाला, (दुग्गतिप्पवाओ) दुर्गति में गिराने वाला, (पावकोवो य) अत्यन्त पापकर्म का जनक कोप, (पावलोभो) पाप कर्म का जनक उत्कट लोभ, (छविच्छेओ) शरीर के अंगोपांगों का छेदन करने वाला, (जीवियंतकरणो) जीवन का अन्त करने वाला, (भयंकरो) भयंकर, (अणकरो य) पापकर्म रूप ऋण का कर्ता, (वज्जो) धन के समान कठोर अथका वर्जनीय (निषिद्ध), अथवा 'सावज्जो' पाठान्तर के अनुसार सावध पापयुक्त, (परितावण अण्हओ) परिताप (पीड़ा) देने वाला आश्रव, (विनासो) विनाश, (निज्जवणा) प्राणों के वियोग का हेतु अथवा जीवन-यापन से रहित करने वाला, अथवा 'निज्झवणो' पाठान्तर के अनुसार शुभध्यान से रहित करने वाला, (लुपणा) प्राणों का लोप (खात्मा) करने वाला, (गुणाणं विराहणत्ति विय) और गुणों को विराधना-नाश भी है । (एवमादीणि) इत्यादि रूप से, (तस्स) उस, (कलुसस्स) कलुषता पैदा करने वाले, (पाणवहस्स) प्राणवध के, (सीसं नामधेज्जाणि) तीस नाम, (होति) होते हैं ; (कडयफलदेसगाई) जो कटुफल देने वाले हैं। मूलार्थ—प्राणवध (हिंसा) नामक आश्रव के तीस गुणनिष्पन्न (सार्थक) नाम हैं, वे इस प्रकार हैं-१ प्राणवध,२ शरीर से प्राणों का उन्मूलन,३ अविश्वास, ४ हिंस्य जीवों की विहिंसा, ५ अकृत्य-कुकर्म, ६ घात, ७ मारण, ८ वध, ६ उपद्रव १० त्रिपातन-मन-वचन-काया द्वारा प्राणों का अतिपात-वियोग, ११ आरम्भ-समारम्भ १२ आयुःकर्मविच्छेद, आयुष्यभेदन-समाप्ति-गालन तथा संवर्तकसंक्षेप-प्राणवायु का ह्रास करना–दम घोटना, १३ मृत्यु, १४ असंयम, १५ सेना से जीवों का मर्दन, १६ प्राणों से जीव का पृथक्करण, १७ परभवगमनकारक,१८ दुर्गति में गिराने वाला, १६ उत्कट पापजनक कोप, २० उत्कट पापजनक लोभ २१ अंगोपांगविच्छेद, २२ जीवन का अन्त करने वाला, २३ भयंकर, २४ पापरूप ऋण का कर्ता, २५ वज्र के समान कठोर अथवा वर्जनीय या सावद्यकर्म, २६ परितापरूप आश्रव, २७ विनाश २८ प्राणवियोग का कारण या जीवनयापन से रहित करने वाला, अथवा शुभध्यान से रहित करने वाला २६ प्राणों का लोप करने वाला या प्राणों का लुटेरा, और
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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