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________________ ६८६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र त्रसजीवों से रहित हों, जिन्हें गृहस्थ ने अपने लिए बनवाया हो, ऐसे प्रासुक (जीवजन्तुरहित), स्त्रो आदि के निवास से रहित, एकान्त शान्त प्रशस्त उपाश्रय- स्थान में निवास करना ही योग्य है। जो स्थान आधाकर्मदोष से परिपूर्ण हो, जहाँ पानी छींटा गया हो. हरी घास आदि उखाड़ कर झाड़बुहार कर साफ किया गया हो, वंदनवार, चौक-पूरण आदि से सजाया गया हो, दर्भ आदि से ऊपर छाया गया हो, खड़िया से पोता गया हो, गोबर आदि से लीपा गया हो, एक बार लीपी हुई भूमि को बार-बार लीपा गया हो, ठंड मिटाने के लिए आग जलाई गई हो, रोशनी के लिए बर्तन भांडे व घर का सामान एक जगह से उठाकर दूसरी जगह जमाये गए हों, तथा जहाँ पर अंदर और बाहर जीवों की असंयमरूप विराधना साधुओं के निमित्त हो, ऐसे शास्त्रनिषिद्ध उपाश्रय को साधु वर्जनीय समझे। यानी ऐसे आरम्भदोष से निर्मित स्थान में साधु न ठहरे। इस प्रकार विविक्तवासवसति (निर्दोषस्थान में निवास, रूप समिति (सम्यक् प्रवृत्ति) के योग–चिन्तनयुक्त प्रयोग से संस्कारित साधु का अन्तरात्मा सदा दोषयुक्त आचरण स्वयं करने-कराने के पापजनक कर्मों से विरक्त हो जाता है । और वह दत्तानुज्ञात वस्तु का ग्रहण करना ही पसंद करता है । ___दूसरी अनुज्ञातसंस्तारकग्रहणरूप अवग्रहसमिति भावना है । वह इस प्रकार है -साधु को फूलवाड़ी, बागबगीचे, नगर के निकटवर्ती जंगल या वनप्रदेश में इक्कड़ (तृणविशेष), कठिनक (विशेष प्रकार का तृण), जन्तुक (जलाशय में पैदा होने वाला घास),परा (तृण विशेष), मूंज का तृण, जिसकी कूचियाँ बनाई जाती हैं-ऐसा तृण विशेष, कुश, दूब, चावलों का पलाल, मेवाड़प्रदेश में पैदा होने वाला तृण विशेष, पर्वज तृणविशेष, फूल, फल, छाल, कोमल पत्ते, कंद, मूल, घास, लकड़ी और कंकड़ आदि वस्तुएँ शय्या या अन्य उपधि बनाने के लिए ग्रहण करना योग्य नहीं है, उपाश्रय में भी साधु के ग्रहण करने योग्य कोई चीजें पहले से भी पड़ी हों, तो भी मालिक के बिना दिये या आज्ञा लिये बिना ग्रहण करना उचित नहीं। उपाश्रय-स्थान की आज्ञा उसके मालिक द्वारा दे देने पर भी वहाँ मौजूद अन्य वस्तुओं में से ग्रहण करने योग्य वस्तु प्रतिदिन उसके मालिक की आज्ञा लेकर ही ग्रहण करनी चाहिए। इस प्रकार अवग्रह समिति के योग से यानी ग्रहण करने योग्य वस्तु के सम्बन्ध में शास्त्रविहितप्रवृत्ति करने से संस्कारित हुई साधु की आत्मा
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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