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________________ ६७२ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र व्याख्या सातवें अध्ययन में सत्यसंवरद्वार का वर्णन कर चुकने के पश्चात् अब आठवें अध्ययन के प्रारम्भ में अचौर्यसंवरद्वार का स्वरूप, अचौर्य के पालनकर्ताओं एवं पूर्ण आराधकों को मन, वचन और काया से भी चौर्यवृत्ति से कैसे निवृत्त होना चाहिए ? अचौर्यसंवर के पूर्ण साधक को मौका आने पर किसी भी वस्तु के लेने की इच्छा होने पर हाथ और पैरों को कैसे संयम में रखना चाहिए ? ‘इन और ऐसे ही विभिन्न पहलुओं से अचौर्यसंवर पर विशद वर्णन शास्त्रकार ने किया है। यद्यपि मूलार्थ और पदान्वयार्थ से इस सूत्रपाठ का अर्थ तो स्पष्ट हो जाता है, लेकिन कतिपय स्थलों पर शास्त्रकार का आशय स्पष्ट करना आवश्यक समझ कर नीचे उन स्थलों पर हम विवेचन प्रस्तुत करते हैं .. अचौर्य के विभिन्न पर्यायवाची शब्द और उनके अर्थ—अचौर्य शब्द के इसके अलावा तीन और पर्यायवाचक नाम मिलते हैं--(१) अदत्तादानविरमण, (२) अस्तेय या अस्तेनक, (३) दत्तानुज्ञात । अचौर्य-का अर्थ सामान्यतया चोरी न करना ही होता है, परन्तु यह तो इसका स्थूलरूप से अर्थ है । क्योंकि ऐसी चोरी, जिसमें पकड़े जाने पर चोरी करने वाला सरकार द्वारा दण्डित होता है, जनता में निन्दित होता है, उसका त्याग तो गृहस्थ श्रावक क्या, मार्गानुसारी भी करता है। सात कुव्यसनों के त्याग में चोरी करने का त्याग तो आ ही जाता है। इसलिए पंचमहाबती साधु के लिए जब अचौर्यमहाव्रत का विधान है तो वहां प्रसंगवशात् उसका अर्थ इस प्रकार हो जाता हैमन, वचन, काया से चोरी करना नहीं, चोरी कराना नहीं और चोरी करने वाले का अनुमोदन न करना । मन से चोरी तब होती है, जब साधक अपने मन के भावों को छिपाता है, अथवा दूसरे के विचारों पर अपनी छाप लगा देता है कि ये विचार सर्वप्रथम मेरे मन में स्फुरित हुए थे। अथवा मन में भी वीतराग देवाधिदेव शासनपति तीर्थंकर महावीर या गुरुदेव की सर्वहितकारी आज्ञा के विपरीत चलने की भावना प्रस्फुटित हुई हो या मन में किसी वस्तु को अपनी बनाने की भावना पैदा हुई हो । मन से कृत की तरह कारित और अनुमोदित चोरी का अर्थ भी समझ लेना चाहिए । वचन से चोरी तब होती है-जब वचन से किसी भाव को प्रगट न करके छिपाया जाता है, या दूसरों के गुणों या अच्छाइयों को छिपाया जाता है, केवल दूसरों के दोष ही प्रगट किये जाते हैं, अथवा किसी से पूछने पर वचन से घुमा-फिरा कर इस प्रकार बोलना, जिससे असत्य भी न प्रगट हो और असली बात को भी छिपा लिया जाय। जैसे किसी के यह पूछने पर कि क्या आप ही मासक्षपणक तपस्वी
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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