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आठवाँ अध्ययन : अचौर्य-संवर
६७१ स्वयं कर लेता है, जो सदा प्रमाण से अधिक भोजन करता है, जो परम्परागत वैरभाव निरन्तर बनाये रखता है, तीव्र क्रोधी है, ऐसा जो साधु है, वह इस अचौर्यव्रत का आराधक नहीं है। यानी ऐसा साधक इस अचौर्यव्रत का आराधन-पालन नहीं कर सकता ।
तब फिर कौन-सा साधक इस व्रत की आराधना कर सकता है ? वही साधु, इस व्रत की आराधना कर सकता है, जो वस्त्र-पात्र आदि उपकरण और भोजन-पान आदि का संग्रह करने और उन्हें यथोचितरूप से साधुओं को बांटने में कुशल है । अत्यन्त बालक, दुर्बल, चिररोगी, वृद्ध एवं मासक्षपण आदि घोर तपश्चरण करने वाले तपस्वी की, प्रवर्तक, आचार्य और उपाध्याय की, नवदीक्षित साधु की, साधर्मी साधुओं की तथा तपस्वी, आचार्यकुल, वृद्ध साधु की शिष्य परम्परा के साधु-साध्वीगण, संघ (साधुसाध्वी श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ) की चित्त की प्रसन्नता के लिए कर्मों की निर्जरा का अभिलाषी जो साधु यश आदि की कामना से रहित होकर दस प्रकार की सेवा-वैयावृत्य अनेक प्रकार से करता है, तथा अप्रीति रखने वाले धर में प्रवेश नहीं करता, तथा अप्रीति रखने वाले की चौकी, पट्टा, मकान, तृणादि का बिछौना, वस्त्र, पात्र, कंबल, दंड. रजोहरण, आसन, चोलपट्टा, मुखवस्त्रिका, पैर पोंछने का कपड़ा आदि विविध उपकरण सामग्री का सेवन-उपभोग नहीं करता,जो दूसरे की निन्दा के वचन या अपनी मिथ्या प्रशंसा के वचन नहीं बोलता, जो दूसरे के दोष नहीं देखता या नहीं प्रगट करता, जो आचार्य, रोगी,वृद्ध आदि दूसरे साधुओं के बहाने से (नाम ले कर) कोई वस्तु ग्रहण नहीं करता, किसी को धर्मभावना से विमुख नहीं करता, किसी के द्वारा दिये गये दान या किये गए सुकृत का अपलाप करके जो उसका नाश नहीं करता, बल्कि दूसरे के गुणों को तथा दान-धर्म आदि सुकृत्य के गुणों को प्रगट करता है, अपने द्वारा किये गए उपकार-सेवा आदि के रूप में दिये गए योगदान का पश्चात्ताप नहीं करता, तथा जो साधुआ को आहारादि वस्तुओं का यथोचित संविभाग करने के स्वभाव का है, जो गच्छ के लिए उपकारी वस्तुओं का या शिष्यों का संग्रह करने तथा उन्हें भोजनवस्त्र या अध्ययन आदि उपकार से संतुष्ट करने में दक्ष है, ऐसा साधु ही इस अचौर्य महाव्रत का आराधक हो सकता है ।