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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र , भत्तपाणसंगहणदाणकुसले) वस्त्रपात्र आदि धर्मोपकरण, भोजन व पेय पदार्थ आदि का संग्रह करने और परस्पर बांटने में कुशल है; और (अच्चंतबाल-दुब्बल - गिलाणबुड्ढ -खमके) अत्यन्त बालक, दुर्बल, चिरकाल के रोगी, वृद्ध तथा मासक्षपण - मासिक उपवास आदि विकट तप करने वाले तपस्वी साधु की तथा ( पवत्ति - आयरिय-उवज्झाए ) प्रवर्त्तक, आचार्य और उपाध्याय को ( सेहे ) नवदीक्षित साधु की, (य) तथा ( साहम्मिके) साधर्मी साधु की, (तवस्सी-कुल-गण-संघ-चेइयट्ठे ) तपस्वी, आचार्यकुल – आचार्य के शिष्य-प्रशिष्य का समुदाय, गण- गच्छ एवं संघ – चतुर्वित्र संघ का चत्यार्थी - चित्त की प्रसन्नता के प्रयोजन से सेवा करने वाला, (निजरट्ठी) कर्मक्षय करने का अभिलाषी, (अणिस्सियं ) श. कीर्ति, सत्ता, धन आदि किसी वस्तु की कामना किये बिना किसी पर निर्भर रहे बिना ( दसवि) दस प्रकार की, (वेयावच्चं ) सेवा वैयावृत्य, बहुविहं) अनेक प्रकार से, (करेइ) करता है, (य) तथा (अचियत्तस्स) अप्रीति रखने वाले के, (गिहं) घर में, ( न पविसइ) प्रवेश नहीं करता (य) और (न) नहीं, (अचियत्तस्स) अप्रीति रखने वाले का, (भत्तपाणं) आहार- पानी (गेहइ ) ग्रहण करता है, (य) तथा (अचियत्तस्स) अप्रीति रखने वाले गृहस्थ के, (पीढ - फलग - सेज्जा- संथारग-वत्थ-पाय- कंबल डंडग-रयहरण- निसेज्ज-चोलपट्टयमुहपोत्तिय पादपु छणाइ-भायण - भंडोवहि-उवगरणं) चौकी, पट्टा, शय्या मकान, तृणादि का बिछौना, वस्त्र, पात्र, कंबल, दंड, रजोहरण, आसन, चोलपट्टा, मुखवस्त्रिका, और पैर पोंछने के कपड़े आदि सामग्री, मिट्टी आदि के भाजन, पात्रादि भांड, वस्त्र मकान आदि उपधिरूप धर्मोपकरणों का ( न सेवइ) सेवन नहीं करता । (य) इसी प्रकार ( परस्स) दूसरे की ( परिवार्य) निन्दा रूप-अवगुणरूप वचन या चापलूसी के वचन ( न जंपति ) नहीं बोलता । (य) और ( परस्स दोसे वि) दूसरों के दोषों को भी ( न गेव्हइ ) ग्रहण नहीं करता — देखता ढूंढ़ता नहीं फिरता । ( परववए सेण वि) वृद्ध, रोगी, चिररोगी, आचार्य आदि के बहाने से दूसरों का नाम लेकर या दूसरों की ओट में, ( न किचि hors) कोई भी पदार्थ ग्रहण नहीं करता नहीं लेता । ( न य ) और न ही (किंचिजणं ) किसी व्यक्ति का चित्त ( विपरिणामेति ) दानादि धर्म से विमुख करता है - यानी धर्माचरण के परिणामों से डिगाता है, (य) तथा (न वि) न ही ( दिन्नसुकयं ) किसी के द्वारा दिये गए दान या किये गए सुकृत - पुण्यकार्य का ( णासेति ) अपलापखण्डन करके नाश नहीं करता । (य) एवं (दाऊण) वैयावृत्यादि द्वारा योगदान करके भी ( पच्छाताविए) पश्चात्ताप करने वाला (न होइ) नहीं होता । और ( संविभाग सीले) उपधि आदि १२ प्रकार की सामग्री का सार्धामियों को यथोचित सम्यक् विभाजन करने के स्वभाव वाला, (संगहोवग्गहकुसले ) गच्छ के लिए वस्तुओं या शिष्यादि का ६६८
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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