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________________ ६२४ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र विपद्ग्रस्त अवस्थाओं में देवता की तरह प्रत्यक्ष आश्चर्यजनक चमत्कार दिखाता है। यह बात तो अनुभव सिद्ध है कि सत्य से असंभव दिखाई देने वाले काम संभव हो जाते हैं। कई बार तो मनुष्य कल्पना भी नहीं कर सकता, इस प्रकार से संकटापन्न दशा में पड़े हुए सत्यवादी को सहसा कोई न कोई सहायता मिल जाती है। नीतिकार कहते हैं 'सत्येनाग्निर्भवेच्छीतोऽगाधाम्बुधिरपि स्थलम् ।. . नासिश्छिनत्ति सत्येन, सत्याद्रज्जूयते फणी॥' _ 'सत्य के प्रभाव से अग्नि ठंडी हो जाती है, अगाध समुद्र जल के बदले स्थल बन जाता है । सत्य के प्रभाव से तलवार काट नहीं सकती, और फणधारी सांप सत्य के कारण रस्सी बन जाता है।' सत्य हरिश्चन्द्र और महासती सीता आदि के उदाहरण तो प्रसिद्ध हैं ही । आधुनिक उदाहरणों की भी कमी नहीं है। सत्यवादी के वचन में सिद्धि होती है । देव उसके वचन को सफल बनाने के लिए तत्पर रहते हैं । उसके मुख से निकले हुए वाक्य मंत्र का-सा चमत्कार दिखलाते हैं । दैवयोग से प्राप्त आपत्ति सत्य के प्रभाव से दूर हो जाती है । देव उसकी सेवा में तैनात रहते हैं। इसीलिए इस सूत्र पाठ में बताया है कि महासमुद्र में दिशामूढ़ बने हुए सैनिक नाविकों की नौकाएं सत्य के प्रताप से समुद्र में स्थिर हो जाती हैं,डूबती नहीं । बड़े-बड़े तूफानों के बीच भी समुद्रयात्री सत्य के प्रभाव से बहते नहीं, मरते भी नहीं, अपितु किनारा पा लेते हैं ; आग की लपलपाती भयंकर लपटों में भी सत्याराधक जलते नहीं, खौलता हुआ गर्मागर्म तेल, रांगा, लोहा और सीसा भी सत्यवादी को सत्य के प्रभाव से कुछ आंच नहीं आने देता, वे गर्मागर्म पदार्थ को हाथ में पकड़ लेते हैं, लेकिन जलते नहीं। ऊँचे से ऊँचे पर्वत की चोटी से गिरा देने पर भी सत्यधारी व्यक्ति का बाल भी बांका नहीं होता। बड़े-बड़े भयंकर युद्धों में चारों ओर नंगी तलवारों से घिरे हुए सत्यवादी का कुछ भी नहीं बिगड़ता, वे उसमें से सहीसलामत निकल जाते हैं। लाठियों आदि की मारों, रस्सी आदि के बंधनों, बलपूर्वक जबर्दस्त प्रहारों और घोर वैरविरोधों के बीच भी सत्यवादी बाल-बाल बच जाते हैं, शत्रुओं के बीच में भी वे निर्दोष निकल जाते हैं, क्योंकि सत्यवादी के आत्मबल के सामने पाशविकबल निस्तेज और परास्त हो जाता है। यही कारण है कि सत्य के प्रभाव से मारने-पीटने और बदला लेने को उद्यत भयंकर शत्रुओं के भी परिणाम बदल जाते हैं। जिस सत्यवादी को पहले वे अपना अहितकर शत्रु समझते थे, उसे ही देख कर वे स्नेहार्द्र हो जाते हैं और उसे मित्रवत् समझने लगते हैं । जो सत्यवादी नरपुंगव सत्य में ही रमण करते हैं, मरणान्त कष्ट आ पड़ने पर भी असत्य का आश्रय नहीं लेते, लेने का विचार तक नहीं करते हैं, ऐसे
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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