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________________ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र शब्दों द्वारा ध्वनित करते हैं, जो बात बिना सोचे-विचारे सहसा उतावलेपन में कह दी गई हो, जो भलीभांति देखी-सुनी न हो, और जो बात दिलदिमाग में अच्छी तरह जम न गई हो. उसे कहना 'असत्य' है। इसीलिए शास्त्रकार ने इस सूत्रपाठ के अन्त में कहा है-'समिक्खियं संजएण कालंमि य वत्तग'-अर्थात्-भलीभांति सोचविचार करके संयमी पुरुष को अवसर पर ही बोलना चाहिए । वृत्तिकार भी कहते हैं - बुद्धीए निएउणं भासेज्जा उभयलोयपरिसुद्ध। सपरोभयाणं जं खलु न सव्वहा पोडजणगं तु ॥' . 'बुद्धि से भलीभांति विचार कर जो स्व, पर और दोनों के लिए सर्वथ! पीड़ाजनक न हो, दोनों लोकों में शुद्ध हो, वही वचन बोलना चाहिए।' ___ सुपइट्ठियजसं-इसका अर्थ यही है कि सत्य को जीवन में निष्ठापूर्वक स्थान देने वालों का यश स्वतः ही फैल जाता है। असत्यवादी की तो पद-पद पर अप्रतिष्ठा-अपकीर्ति होती है । अतः निष्कर्ष यह निकला कि सत्य अपने पालन करने वालों का यश संसार में फैला देता है । सत्यवादी सत्य के प्रभाव से उत्कृष्ट पद पर पहुंचता देखा गया है। विभिन्न कोटि के सत्य के उपासक -विभिन्न कोटि के महान् सत्योपासक व्यक्ति सत्य को अपने मन, वचन, साधना एवं जीवन की विभिन्न प्रवृत्तियों में स्थान देते हैं, उसको आदर देते हैं, उसका आचरण करते हैं; तपस्या और नियमों में उस सत्य को केन्द्र में रख कर चलते हैं, विद्याओं और कलाओं में पारंगत होने वाले भी उसी सत्य की साधना करते हैं; शास्त्रीय सिद्धान्तों का गहन अध्ययन करके वे सत्य का रहस्य पा लेते हैं,सत्य की महिमा और सत्य सिद्धान्तों को भलीभांति जानकर जनता को उसकी गरिमा से अवगत कराते हैं, सत्य के जिज्ञासु जीवादितत्वों का ज्ञान करके सत्य की साधना करते हैं, सत्य की सार्थकता और उपयोगिता को हृदयंगम कर लेते हैं, सत्य के द्वारा अपनी विद्या सिद्ध करते हैं और सत्य की स्तुति, अर्चा एवं पूजा करते हैं । शास्त्रकार की दृष्टि में वे क्रमशः ये हैं-सुसंयमी पुरुष, उत्तम देव, उत्तम मनुष्य, बलशाली मनुष्य, शास्त्रोक्त विधि से आचरण करने वाले सुविहित साधुजन, उत्कृष्ट साधुजन, तपस्वी, नियमधारी, विद्याधर, चतुर्दशपूर्वधर, महर्षिगण, देवेन्द्र, नरेन्द्र, वैमानिक देव, चारणमुनि. सत्य की अर्चा और पूजा करने वाले देव और असुरगण। सुगतिपहदेसकं सग्गमग्गसिद्धिपहदेसकं—इन दोनों पदों का आशय यह है कि सत्य मनुष्यगति और देवगति इन दोनों सुगतियों का प्रथप्रदर्शक, तथा अनुत्तरविमानस्वर्ग तक के मार्ग का तथा सिद्धिमार्ग का प्रवर्तक है। क्योंकि तत्वार्थसूत्र के 'अल्पारम्भपरिग्रहत्वं च मानुषस्य' 'सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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