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________________ सातवां अध्ययन : सत्य-संवर ६०६ पथप्रदर्शक है (च) और (लोगुत्तम) लोक में श्रेष्ठ (इणं) यह (वयं) व्रत है । यह (विज्जाहरगगणगमणविज्जाण साहक) विद्याधरों को आकाशगामिनी विद्याओं का सिद्ध करने वाला है, (सग्गमग्गसिद्धिपहदेसकं) स्वर्ग के मार्ग—अनुत्तर देवलोक तक तथा सिद्धिपथ का प्रवर्तक है, (२) वह (सच्चं) सत्य (अवितहं) यथातथ्य-मिथ्याभाव से रहित है, (उज्जुयं) सरल भाव वाला है, (अकुडिलं) कुटिलता से रहित है, (भयत्थं अत्थतो) सद्भूत-विद्यमान पदार्थ का ही प्रयोजनवश कथन करने वाला है, (विसुद्ध) बिलकुल शुद्ध है—मिलावट से दूर है, अथवा प्रयोजन से निर्दोष है, (उज्जोयकरं) सत्य ज्ञान का प्रकाश करने वाला है, (जीवलोके) जीवों के आधारभूत लोक में, (सव्वभावाणं) समस्त पदार्थों का (अविसंवादि) अव्यभिचारी-यथार्थ (पभासक) प्रभाषक-प्रतिपादन करने वाला (भवति) है। (जहत्थमहुरं) यथार्थ होने के कारण मधुर-कोमल है, (ज) जो सत्य (माणुसाणं) मनुष्यों को (बहुएसु अवत्थंतरेसु) बहुत-सी विभिन्न अवस्थाओं में (अच्छेरकारक) आश्चर्यजनक कार्य करने वाला है, इसलिए (तं) वह (पच्चक्खं दयिवयं व) साक्षात् देव को तरह है। (महासमुदमज्झे) महासागर के बीच में (मूढाणिया वि पोया) जिस पर बैठी हुई सेना दिग्भ्रान्त हो गई है—दिशा भूल गई है, वे जहाज भी (सच्चेण) सत्य के प्रभाव से (चिट्ठति) ठहर जाते हैं, (न निमज्जंति) डूबते नहीं हैं, (य) और (सच्चेण) सत्य के प्रभाव से (उदगसंभमंमि वि) भंवर वाले जलप्रवाह में भी, (न बुज्झइ) बहते नहीं, (य) और (न मरंति) न मरते हैं, किन्तु (थाहं लमंति) थाह पा लेते हैं (य) और (सच्चेण) सत्य से (अगणिसंभमंमि वि) जलती अग्नि के भयंकर चक्र में भी (न डमंति) जलते नहीं (उज्जुगा मणूसा) सरलस्वभाव के मनुष्य (सच्चेण य) सत्य के कारण (तत्ततेल्लतउलोहसीसकाई) उकलते हुए तेल, रांगे, लोहे और सीसे को (छिबंति) छू लेते हैं, (य) और (धरैति) हाथ में रख लेते हैं, (न डमंति) किन्तु जलते नहीं (मणूसा) मनुष्य (पव्वयकडकाहि) पर्वत की चोटी से (मुच्चंति) नीचे गिरा दिये जाते हैं, किन्तु (न य मरंति) मरते नहीं है। (य) तथा (सच्चेण परिग्गहिया) सत्य को धारण किये हुए–सत्य से युक्त व्यक्ति, (असिपंजरगया) चारों ओर तलवारों के पोंजरे में अर्थात् खड्गधारियों से घिरे हुए मनुष्य (समराओ वि) संग्राम से (अणहा) अक्षत शरीर सहित-घायल हुए बिना (णिइति) निकल जाते हैं। (य) तथा (सच्चवादी) सत्यवादी मनुष्य (वह-बंध-भियोगवेरघोरेहि) वध, बन्धन तथा बल प्रयोगपूर्वक प्रहार और घोर वैरविरोधियों ३६
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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