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सातवां अध्ययन : सत्यसंवर
सत्य की महिमा और उसका स्वरूप
प्रथम संवरद्वार में प्राणातिपातविरमणरूप अहिंसा के सम्बन्ध में शास्त्रकार ने विशद निरूपण किया है । अहिंसा का पूर्ण रूप से सांगोपांग पालन सत्यव्रत के धारण करने वालों द्वारा ही हो सकता है । अतः प्रसंगवश शास्त्रकार 'सत्यवचन' के रूप में द्वितीय संवरद्वार प्रारम्भ कर रहे हैं । सर्वप्रथम वे सत्य की महिमा और उसके स्वरूप का निरूपण निम्नोक्त सूत्रपाठ द्वारा कर रहे हैं—
मूलपाठ
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जंबू ! बितियं च सच्चवयणं सुद्ध सुचियं, सिवं, सुजायं, सुभासिय, सुव्वयं, सुकहियं, सुदिट्ठ, सुपतिट्ठियं सुपइट्ठियजसं, सुसंजमियवयणबुइयं, सुरवरनरवसभपवरबलवगसुविहियजणबहुमयं, परमसाहुधम्मचरणं, तवनियमपरिग्गहियं, सुगति पहदेसगं च लोगुत्तमं वयमिगं । विज्जाहरगगणगमण विज्जाण साहकं सग्गमग्गसिद्धिपदेकं अवितहं तं सच्चं उज्जुयं अकुडिलं भूयत्थं अत्थतो विसुद्ध उज्जोयकरं पभासकं भवति सव्वभावाण जीवलोगे अविसंवादि । जहत्थमहुरं पच्चक्खं दयिवयं व जं तं अच्छे र कारकं अवत्थंतरेसु बहु एसु माणसाणं । सच्चेण महासमुद्दमज्झे (वि) चिट्ठेति, न निमज्जति मूढाणिया वि पोया । सच्चेण य उदगसंभमंमि विन बुज्झइ, न य मरंति, थाहं ते लभंति । सच्चेण य अगणिसंभमिं विन डज्झति उज्जुगा मणूसा । सच्चेण य तत्ततेल्लतउलोहसीसकाई छिबंति, धरेंति, न य डज्झति मणूसा । पव्वयकडकाहि मुच्चते, न य मरंति सच्चेण य परिग्गहिया । असिपंजरगया
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